मंगलवार, 28 सितंबर 2010
शनिवार, 25 सितंबर 2010
पुत्री-दिवस २६, सितम्बर पर विशेष
सभी बेटिओं को समर्पित
लाडली बिटिया मेरी....
- अरुण मिश्र मेरे घर की रोशनी है, मेरे आँगन की कली है|
बेल में परिवार के मेरे फली, मीठी फली है|
संस्कारों में रची है, वंश की विरुदावली है|
लाडली बिटिया मेरी मासूम,भोली है, भली है||
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
ग़ज़ल
इश्क़ के गहरे समन्दर को खॅगाला होता....
- अरुण मिश्र
बेवज़ह गुल न मेरे सिम्त उछाला होता।
तो ये निस्बत का भरम हमने न पाला होता।।
बिन तेरे ज़िन्दगी, तारीक़ियों का जंगल है।
तू चला आता तो, कुछ मन में उजाला होता।।
हम सॅभल सकते थे, कमज़र्फ नहीं थे इतने।
काश उस शोख़ ने, पल्लू तो सॅभाला होता।।
तर्क़े-उल्फ़त भी, तग़ाफ़ुल भी और तोहमत भी।
कोई उम्मीद का पहलू, तो निकाला होता।।
तुम भी पा जाते ‘अरुन’, अश्क़ के ढेरों मोती।
इश्क़ के गहरे समन्दर को खॅगाला होता।।
*
- अरुण मिश्र
- अरुण मिश्र
बेवज़ह गुल न मेरे सिम्त उछाला होता।
तो ये निस्बत का भरम हमने न पाला होता।।
बिन तेरे ज़िन्दगी, तारीक़ियों का जंगल है।
तू चला आता तो, कुछ मन में उजाला होता।।
हम सॅभल सकते थे, कमज़र्फ नहीं थे इतने।
काश उस शोख़ ने, पल्लू तो सॅभाला होता।।
तर्क़े-उल्फ़त भी, तग़ाफ़ुल भी और तोहमत भी।
कोई उम्मीद का पहलू, तो निकाला होता।।
तुम भी पा जाते ‘अरुन’, अश्क़ के ढेरों मोती।
इश्क़ के गहरे समन्दर को खॅगाला होता।।
*
टिप्पणी : इस ग़ज़ल के चार शेर', डॉ. डंडा लखनवी के ब्लाग, 'मानवीय सरोकार'
में १३, जुलाई, २०१० को पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं| - अरुण मिश्र
रविवार, 19 सितंबर 2010
प्रिय पौत्र कुशाग्र के जन्म-दिवस पर
नवांकुर...
-अरुण मिश्र
-अरुण मिश्र
कुशाग्र मिश्र |
यह नवांकुर कुक्षि से,
रुचिरा ऋचा के जो उगा है |
मिश्र -कुल-वंशावली-मणि-
माल, नव-कौस्तुभ लगा है ||
प्रज्ज्वलित नव - दीप सा,
प्रज्ज्वलित नव - दीप सा,
जो आज घर की देहरी पर |
क्षितिज पर कुल - व्योम के,
चमका नया नक्षत्र भास्वर ||
लहलहाई, वंश की फिर-
बेल, फूटी नई कोंपल|
दूध से आँचल भरा; कुल -
तरु, फला है पूत का फल||
पुष्प जो अभिनव खिला,
परिवार-बगिया में विहंस कर |
गोद दादी के, पितामह के,
ह्रदय में , मोद दे भर ||
हो 'कुशाग्र', कुशाग्र-मेधायुत,
अपरिमित बुद्धि - बल हो|
मंगलम, मधुरं, शुभम, प्रिय,
प्रोज्ज्वल, प्रांजल, प्रबल हो||
हूँ| -अरुण मिश्र
यह कविता सुनने के लिए दिए गए ऑडियो क्लिप का
लहलहाई, वंश की फिर-
बेल, फूटी नई कोंपल|
दूध से आँचल भरा; कुल -
तरु, फला है पूत का फल||
पुष्प जो अभिनव खिला,
परिवार-बगिया में विहंस कर |
गोद दादी के, पितामह के,
ह्रदय में , मोद दे भर ||
हो 'कुशाग्र', कुशाग्र-मेधायुत,
अपरिमित बुद्धि - बल हो|
मंगलम, मधुरं, शुभम, प्रिय,
प्रोज्ज्वल, प्रांजल, प्रबल हो||
टिप्पणी : अपने पौत्र चिरंजीव 'कुशाग्र' के जन्म पर, गत वर्ष लिखी गई यह कविता, उसके प्रथम वर्ष-गांठ
पर दुनिया के सभी दादाओं की ओर से दुनिया के सभी पोतों के लिए ब्लागार्पित/लोकार्पित करता हूँ| -अरुण मिश्र
यह कविता सुनने के लिए दिए गए ऑडियो क्लिप का
प्ले बटन क्लिककरें।
बुधवार, 15 सितंबर 2010
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
हिंदी-दिवस पर विशेष
कुछ तो हिंदी में बोलिए साहिब...
-अरुण मिश्र
कुछ तो हिंदी में बोलिए साहिब।
मन की गांठों को खोलिए साहिब।।
पाँच-तारे से निकल कर तो कभी।
गाँव - गलियों में डोलिए साहिब।।
फ़र्ज़ कुछ आप का भी बनता है।
अपना दिल तो टटोलिये साहिब।।
आप ने है बहुत तरक्की की।
आप गैरों के हो लिए साहिब।।
आप ने भी मनाया हिंदी-दिवस।
सब के संग थोड़ा रो लिए साहिब।।
-अरुण मिश्र
कुछ तो हिंदी में बोलिए साहिब।
मन की गांठों को खोलिए साहिब।।
पाँच-तारे से निकल कर तो कभी।
गाँव - गलियों में डोलिए साहिब।।
फ़र्ज़ कुछ आप का भी बनता है।
अपना दिल तो टटोलिये साहिब।।
आप ने है बहुत तरक्की की।
आप गैरों के हो लिए साहिब।।
आप ने भी मनाया हिंदी-दिवस।
सब के संग थोड़ा रो लिए साहिब।।
शनिवार, 11 सितंबर 2010
ईद मुबारक़ पर विशेष
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