- अरुण मिश्र
बेवज़ह गुल न मेरे सिम्त उछाला होता।
तो ये निस्बत का भरम हमने न पाला होता।।
बिन तेरे ज़िन्दगी, तारीक़ियों का जंगल है।
तू चला आता तो, कुछ मन में उजाला होता।।
हम सॅभल सकते थे, कमज़र्फ नहीं थे इतने।
काश उस शोख़ ने, पल्लू तो सॅभाला होता।।
तर्क़े-उल्फ़त भी, तग़ाफ़ुल भी और तोहमत भी।
कोई उम्मीद का पहलू, तो निकाला होता।।
तुम भी पा जाते ‘अरुन’, अश्क़ के ढेरों मोती।
इश्क़ के गहरे समन्दर को खॅगाला होता।।
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टिप्पणी : इस ग़ज़ल के चार शेर', डॉ. डंडा लखनवी के ब्लाग, 'मानवीय सरोकार'
में १३, जुलाई, २०१० को पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं| - अरुण मिश्र
@ हम सॅभल सकते थे, कमज़र्फ नहीं थे इतने।
जवाब देंहटाएंकाश उस शोख़ ने, पल्लू तो सॅभाला होता।।
गज़ब !!!!!
प्रिय अमित जी, तारीफ़ के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया|सस्नेह-
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.