-अरुण मिश्र धीरे - धीरे वो मेरे एहसास पे छाने लगे। ख़्वाबों में बसने लगे, ख़्यालों को महकाने लगे।। उनकी सब बेबाकियाँ जब हमको रास आने लगीं। तब अचानक एक दिन, वो हमसे शरमाने लगे।। जिनकी आमद के लिए थे मुद्दतों से मुन्तज़िर। उनका आना तो हुआ पर, आते ही जाने लगे।। देखने लायक वो मन्ज़र था, जुदाई की घड़ी। अश्क अपने पोंछ कर, हमको ही समझाने लगे।। बहकी-बहकी गुफ्तगू थी जब तलक पहलू में थे। हमसे भी ज्यादा 'अरुन', वो ख़ुद ही दीवाने लगे।। *
ज़िस्म ये रूह है, मिट्टी है, ख़ला है, क्या है ? -अरुण मिश्र ज़िस्म ये रूह है, मिट्टी है, ख़ला है, क्या है ? नूर है, आग है, पानी है, हवा है, क्या है ? साँस की बंसरी को रोज़ नये सुर देता; कोई फ़नकार है, शायर है, ख़ुदा है, क्या है ? कभी डसती, कभी लहराती, कभी छा जाती; कोई नागिन है, ज़ुल्फ़ है कि, घटा है, क्या है? आँखें इस्रार करें, लब पे मुसल्सल इन्कार; कोई आदत है कि, ज़िद है कि, अदा है,क्या है? इश्क़ को हुस्न के रखते हो मुक़ाबिल जो, 'अरुन '; है ये ख़ुद्दारी, जुनूँ है कि, अना है, क्या है ? *
पूजा होती है तो,एक संयुक्त आरती भी होनी चाहिए | पर, घर में
उपलब्ध आरती सग्रहों में ऐसी कोई संयुक्त आरती नहीं मिली |
गणेश जी की जहाँ कई आरती मिली, वहीँ लक्ष्मी जी की केवल
एक आरती ही मिल पाई | ऐसा शायद सरस्वती-पुत्रों के लक्ष्मी
मैय्या के प्रति सहज पौराणिक अरुचि के कारण हो, जो
अनावश्यक ही, "लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम......" का
दुराग्रह पाले रहते हैं और इसी कारण प्रायः उन की विशेष कृपा
से वंचित रह जाते हैं |
अस्तु, इस दृष्टिकोण से एक संयुक्त आरती लिखने का
प्रयास किया जो, मेरी जानकारी में हिंदी की पहली और एकमात्र
श्री लक्ष्मी-गणेश जी की संयुक्त आरती है। तीन छंदों की यह आरती
दीपावली-पूजन के उपयोगार्थ, समस्त भक्त-जनों को सादर-सप्रेम
प्रस्तुत हैं | -अरुण मिश्र .
पुनश्च :
वर्ष २०१२ की दीपावली पर मेरे संगीतकार मित्र श्री केवल कुमार ने इस आरती को संगीतबद्ध किया है जो, सभी भक्त जनों को दीपावली-पूजन हेतु सस्नेह भेंट की जा रही है। आरती को स्वर, सुश्री प्राची चंद्रा एवं सखियों ने दिया है। एतदर्थ, मैं इन सबका आभारी हूँ।
माँ लक्ष्मी एवं भगवान गणेश की आप सब पर अशेष कृपा बरसे। दीपावली की असंख्य शुभकामनायें।-अरुण मिश्र .
*आरती* आरति श्री लक्ष्मी-गणेश की |
धन-वर्षणि की,शमन-क्लेश की ||
दीपावलि में संग विराजें |
कमलासन - मूषक पर राजें |
शुभ अरु लाभ, बाजने बाजें |
ऋद्धि-सिद्धि-दायक - अशेष की ||
मुक्त - हस्त माँ, द्रव्य लुटावें |
एकदन्त, दुःख दूर भगावें |
सुर-नर-मुनि सब जेहि जस गावें |
बंदउं, सोइ महिमा विशेष की ||
विष्णु-प्रिया, सुखदायिनि माता | गणपति, विमल बुद्धि के दाता | श्री-समृद्धि, धन-धान्य प्रदाता | मृदुल हास की, रुचिर वेश की || माँ लक्ष्मी, गणपति गणेश की ||
राम परम प्रभु तुम्हें नमन है… (भावानुवाद) -अरुण मिश्र करें देव-जन आ कर वन्दन, सूर्य-वंश के हो तुम नन्दन । भाल तुम्हारे, शोभित चन्दन, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥१॥
विश्वामित्र-यज्ञ के कारक, शिला-अहिल्या के उद्धारक । महादेव के धनुर्विदारक, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥२॥
पिता-वचन हित आज्ञाकारी, तप-वन के तुम बने विहारी । हे! निज-कर सुन्दर धनु-धारी, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥३॥ मृग को मुक्त किया निज सायक, हे ! जटायु के मोक्ष-प्रदायक । बींधा बालि कीश-कुल-नायक, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥४॥ वानर-जन से संगति-सम्मति, बाँधा पुल से महा-सरित्पति । दशकंधर का किया वंश-क्षति, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥५॥ दीन देव-जन को कर हर्षित, कपि-जन की इच्छा हित वर्षित । स्वजन-शोक को करते कर्षित, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥६॥
कर अरि-हीन राज्य का रक्षण, प्रजा जनों के भय का भक्षण । करते अस्त मोह के लक्षण, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥७॥
अखिल भूमि का भार लिया हर, ले निज धाम गए सब नागर । जगत हेतु हे ! श्रेष्ठ दिवाकर, राम परम-प्रभु तुम्हें नमन है ॥८॥ * भव-भय उसको नहीं सताये, जो हो कर एकाग्र-चित्त नर। रघुवर के इस उत्तम अष्टक का, करता है पाठ निरन्तर ॥ ***
(इति श्री परमहंस स्वामी ब्रह्मानन्द विरचित श्री रामाष्टक का भावानुवाद सम्पूर्ण)
सागर की ये फेनिल लहरें .... सागर की ये फेनिल लहरें मुझे देख कर कितनी खुश हैं। पैरों तक दौड़ी आती हैं; कुछ मीठे स्वर में गाती हैं। हाल पूँछतीं कहो सखा तुम कहाँ खो गए थे इतने दिन ? दुनिया के किन जंजालों में ? बहुत दिनों के बाद मिले हो।
क्या ये मुझ को नहीं पता है , जितनी हलचल मेरे उर में , उतनी ही तेरे भी मन में ? आओ बैठो , बहुत-बहुत बातें करते हैं। बहुत दिनों के बाद मिले हो।। * - अरुण मिश्र १७. ०९. २०१७ , रविवार , प्रातः पुरी सागर तट।
अष्टभुजी माँ की पताका लहराती है....... -अरुण मिश्र
गंगा के तीर एक ऊँची पहाड़ी पर , अष्टभुजी माँ की पताका लहराती है | विन्ध्य-क्षेत्र का है, माँ सिद्ध-पीठ तेरा घर , आ के यहाँ भक्तों को सिद्धि मिल जाती है | जर्जर, भव-सागर के ज्वार के थपेड़ो से , जीवन के तरनी को पार तू लगाती है | जो है बड़भागी, वही आता है शरण तेरे , तेरे चरण छू कर ही, गंग, बंग जाती है || * * * * आठ भुजा वाली, हे! अष्टभुजी मैय्या, निज- बालक की विनती को करना स्वीकार माँ | जननी जगत की तुम, पालतीं जगत सारा , तेरी शरण आ के, जग पाए उद्धार माँ | तुम ने सुनी है सदा सब की पुकार , आज- कैसे सुनोगी नहीं मेरी पुकार माँ | दुष्ट -दल -दलन हेतु , काफ़ी है एक भुजा , शेष सात हाथन ते , भक्तन को तार माँ || * टिप्पणी : वर्ष १९९५ में इन छंदों की रचना माँ अष्टभुजी देवी, (विन्ध्याचल,उ.प्र.) के चरणों में हुई थी | (पूर्वप्रकाशित )
यूँ हवाओं में, घुल गई होली। रंग बरसे तो, धुल गई होली। सारे आलम में, मस्तियाँ बिखरीं। इक पिटारी सी,खुल गई होली।। बेल-बूटों सी, है कढ़ी होली। फ्रेम में मन के, है मढ़ी होली। रंग का इक तिलिस्म है, हर-सू। सर पे जादू सी, है चढ़ी होली।। सीढ़ी दर सीढ़ी है, उतरी होली। आके अब लान में, पसरी होली। संग हवा के, गुलाल बन के उड़ी। रंग में भीगी तो, निखरी होली।। हाथ यूँ ही, हिला रही होली। खेल मुझको, खिला रही होली। कितनी मुश्क़िल से, पहुँचा आंगन तक। शायद छत पे, बुला रही होली।। देखो हौले से, आ रही होली। मेरे जी को, लुभा रही होली। उम्र तक को, धकेल कर पीछे। कानों में होली, गा रही, होली।। मीठी यादें, जगा रही होली। चैन मन का, भगा रही होली। रंग की बारिशों, न थम जाना। आग दिल में, लगा रही होली।। ख़ुश्क है ’औ कभी पुरनम होली। कभी शोला, कभी शबनम होली। रंग है, रस है, रूप है, कि महक। एक मौसम है, कि सरगम होली।। प्यासी आँखों का, ख़्वाब है होली। चप्पा- चप्पा, गुलाब है होली। लब पे आने से, झिझकता जो सवाल। उसका, मीठा जवाब है होली।। फूली सरसों, संवर रही होली। आम बौरे, निखर रही होली। कोयलें कूकीं, पपीहे पागल। रस के झरने सी झर रही होली।। यूँ मज़े में, शुमार है होली। ज़ोश , मस्ती, ख़ुमार, है होली। इस बरस, कैश जो किया सो किया। बाकी तुम पर, उधार है होली।।