https://youtu.be/IGo6zTgfCrU
रचना : सन्त मीराबाई
स्वर : अमृता काले
राग प्रभाती
मूल भजन
थें तो पलक उघाड़ो दीनानाथ,
मैं हाजिर-नाजिर कद की खड़ी॥
मैं हाजिर-नाजिर कद की खड़ी॥
साजणियां दुसमण होय बैठ्या, सबने लगूं कड़ी।
तुम बिन साजन कोई नाहिं है, डिगी नाव मेरी समंद अड़ी॥
दिन नहिं चैन रैण नहीं निदरा, सूखूं खड़ी खड़ी।
बाण बिरह का लग्या हिये में, भूलुं न एक घड़ी॥
पत्थर की तो अहिल्या तारी बन के बीच पड़ी।
कहा बोझ मीरा में करिये सौ पर एक धड़ी॥
शब्दार्थ
पलक उघाड़ो = आँखें खोलो, मेरी ओर देखो। हाजिर नाज़िर = आँखों के सामने। कद की = कभी से, देर से। साजणियां = स्वजन, सगे। दुसमण = दुश्मन, बैरी। सबने = सभी को। लगूँ कड़ी = कड़वी, अप्रिय जान पड़ती हूँ। डिगी = डगमगा गई। समंद = समुद्र। अड़ी = रुक गई। निदरा = नींद। सौ पर एक धड़ी = सौके सामने वा मुकाबले एक पसेरी।
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