https://youtu.be/rZLP2q5F_mY
यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचिताः
समं भान्ति ध्रौव्य व्यय-जनि-लसन्तोऽन्तरहिताः।
जगत्साक्षी मार्ग-प्रकटन परो भानुरिव यो
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(१)
अताम्रं यच्चक्षुः कमल-युगलं स्पन्द-रहितं
जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि।
स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(२)
नमन्नाकेंद्राली-मुकुट-मणि-भा जाल जटिलं
लसत्पादाम्भोज-द्वयमिह यदीयं तनुभृताम्।
भवज्ज्वाला-शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(३)
यदर्चा-भावेन प्रमुदित-मना दर्दुर इह
क्षणादासीत्स्वर्गी गुण-गण-समृद्धः सुख-निधिः।
लभन्ते सद्भक्ताः शिव-सुख-समाजं किमुतदा
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(४)
कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगत-तनुर्ज्ञान-निवहो
विचित्रात्माप्येको नृपति-वर-सिद्धार्थ-तनयः।
अजन्मापि श्रीमान् विगत-भव-रागोद्भुत-गतिः
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(५)
यदीया वाग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला
बृहज्ज्ञानांभोभिर्जगति जनतां या स्नपयति।
इदानीमप्येषा बुध-जन-मरालैः परिचिता
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(६)
अनिर्वारोद्रेकस्त्रिभुवन-जयी काम-सुभटः
कुमारावस्थायामपि निज-बलाद्येन विजितः
स्फुरन्नित्यानन्द-प्रशम-पद-राज्याय स जिनः
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(७)
महामोहातंक-प्रशमन-परा-कस्मिन्भिषग्
निरापेक्षो बंधु र्विदित-महिमा मंगलकरः।
शरण्यः साधूनां भव-भयभृतामुत्तमगुणो
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥(८)
महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या 'भागेन्दु' ना कृतम्।
यः पठे च्छ्रणुयाच्चापि स याति परमां गतिम्॥(९)
अर्थ
जिस प्रकार सन्मुख समागम पदार्थ दर्पण में झलकते है,
उसी प्रकार जिनके केवलज्ञान में समस्त जीव-अजीव अनंत
पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य | सहित युगपत् प्रतिभासित होते
रहते है; तथा जिस प्रकार सूर्य लौकिक मार्गों को प्रकाशित
करता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाले जो
जगत के ज्ञाता–दृष्टा हैं; वे भगवान महावीर मेरे ( हमारे )
नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे।।१।।
उसी प्रकार जिनके केवलज्ञान में समस्त जीव-अजीव अनंत
पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य | सहित युगपत् प्रतिभासित होते
रहते है; तथा जिस प्रकार सूर्य लौकिक मार्गों को प्रकाशित
करता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाले जो
जगत के ज्ञाता–दृष्टा हैं; वे भगवान महावीर मेरे ( हमारे )
नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे।।१।।
स्पन्द (टिमकार ) और लालिमा रहित जिनके दोनों नेत्रकमल मनुष्यों
को | बाह्य और अभ्यंतर क्रोधादि विकारों का प्रभाव प्रगट कर रहे हैं;
और जिनकी मुद्रा स्पष्ट रूप से पूर्ण शान्त और अत्यंत विमल है; वे
भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे
( हमें ) दर्शन दे।।२।।
को | बाह्य और अभ्यंतर क्रोधादि विकारों का प्रभाव प्रगट कर रहे हैं;
और जिनकी मुद्रा स्पष्ट रूप से पूर्ण शान्त और अत्यंत विमल है; वे
भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे
( हमें ) दर्शन दे।।२।।
नम्रीभूत इन्द्रों के समूह के मुकुटों की मणियों के प्रभाजाल से जटिल
( मिश्रित ) जिनके कान्तिमान दोनों चरणकमल, स्मरण करने मात्र से
ही, शरीरधारियों की सांसारिक दुःख–ज्वालाओं का, जल के समान
शमन कर देते | हैं; वे भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी
हों अर्थात् मुझे | ( हमें ) दर्शन दे ।।३।।
( मिश्रित ) जिनके कान्तिमान दोनों चरणकमल, स्मरण करने मात्र से
ही, शरीरधारियों की सांसारिक दुःख–ज्वालाओं का, जल के समान
शमन कर देते | हैं; वे भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी
हों अर्थात् मुझे | ( हमें ) दर्शन दे ।।३।।
जब पूजा करने के भाव मात्र से प्रसन्नचित्त मेढ़क ने क्षण भर में गुणगणों से
समृद्ध सूख की निधि स्वर्गसंपदा को प्राप्त कर लिया, तब यदि उनके
सद्भक्त मुक्ति-सुख को प्राप्त करलें तो कौनसा आश्चर्य हैं अर्थात् उनके
सद्भक्त अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त करेंगे। वे भगवान महावीर स्वामी मेरे
( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।। ४ ।।
समृद्ध सूख की निधि स्वर्गसंपदा को प्राप्त कर लिया, तब यदि उनके
सद्भक्त मुक्ति-सुख को प्राप्त करलें तो कौनसा आश्चर्य हैं अर्थात् उनके
सद्भक्त अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त करेंगे। वे भगवान महावीर स्वामी मेरे
( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।। ४ ।।
जो अंतरंग दृष्टि से ज्ञानशरीरी ( केवलज्ञान के पुज ) एवं बहिरंग दृष्टि से तप्त
स्वर्ण के समान आभामय शरीरवान होने पर भी शरीर से रहित हैं; अनेक
ज्ञेय उनके ज्ञान मे झलकते हैं - अतः विचित्र ( अनेक ) होते हुए भी एक
(अखण्ड ) हैं; महाराजा सिद्धार्थ के पुत्र होते हुए भी अजन्मा हैं; और
केवलज्ञान तथा समवशरणादि लक्ष्मी से युक्त होने पर भी संसार के राग से
रहित हैं । इस प्रकार के आश्चर्यो के निधान वे भगवान महावीर स्वामी मेरे
(हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।।५।।
स्वर्ण के समान आभामय शरीरवान होने पर भी शरीर से रहित हैं; अनेक
ज्ञेय उनके ज्ञान मे झलकते हैं - अतः विचित्र ( अनेक ) होते हुए भी एक
(अखण्ड ) हैं; महाराजा सिद्धार्थ के पुत्र होते हुए भी अजन्मा हैं; और
केवलज्ञान तथा समवशरणादि लक्ष्मी से युक्त होने पर भी संसार के राग से
रहित हैं । इस प्रकार के आश्चर्यो के निधान वे भगवान महावीर स्वामी मेरे
(हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।।५।।
जिनकी वाणीरूपी गंगा नाना प्रकार के नयरूपी कल्लोलों के कारण निर्मल हैं
और अगाध ज्ञानरूपी जल से जगत की जनता को स्नान कराती रहती है तथा
इस समय भी विद्वज्जनरूपी हंसों के परिचित है, वे भगवान महावीर स्वामी मेरे
( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।।६।।
और अगाध ज्ञानरूपी जल से जगत की जनता को स्नान कराती रहती है तथा
इस समय भी विद्वज्जनरूपी हंसों के परिचित है, वे भगवान महावीर स्वामी मेरे
( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे ( हमें ) दर्शन दे ।।६।।
अनिर्वार हैं वेग जिसका और जिसने तीन लोकों को जीत लिया हैं, ऐसे
कामरूपी सुभट को जिन्होने स्वयं आत्मबल से कुमारावस्था में ही जीत
लिया हैं, परिणामस्वरूप जिनके अनन्तशक्ति का साम्राज्य एवं शाश्वतसुख
स्फुरायमान हो रहा हैं; वे भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे )
नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे (हमें ) दर्शन दे ।। ७ ।।
कामरूपी सुभट को जिन्होने स्वयं आत्मबल से कुमारावस्था में ही जीत
लिया हैं, परिणामस्वरूप जिनके अनन्तशक्ति का साम्राज्य एवं शाश्वतसुख
स्फुरायमान हो रहा हैं; वे भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे )
नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे (हमें ) दर्शन दे ।। ७ ।।
जो महा मोहरूपी रोग को शान्त करने के लिए निरपेक्ष वैद्य हैं, जो जीव मात्र के
नि:स्वार्थ बन्धु हैं, जिनकी महिमा से सारा लोक परिचित हैं, जो महामंगल के
करने वाले हैं, तथा भव-भय से भयभीत साधुओं को जो शरण हैं; वे उत्तम गुणो
के धारी भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे
( हमें ) दर्शन दे ।। ८ ।।
नि:स्वार्थ बन्धु हैं, जिनकी महिमा से सारा लोक परिचित हैं, जो महामंगल के
करने वाले हैं, तथा भव-भय से भयभीत साधुओं को जो शरण हैं; वे उत्तम गुणो
के धारी भगवान महावीर स्वामी मेरे ( हमारे ) नयनपथगामी हों अर्थात् मुझे
( हमें ) दर्शन दे ।। ८ ।।
जो कविवर भागचंद द्वारा भक्तिपूर्वक रचित इस महावीराष्टक स्तोत्र का पाठ
करता हैं व सुनता हैं, वह परमगति ( मोक्ष ) को पाता हैं।।। ९ ।।
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