https://youtu.be/MP-ujifat6M
शिव संकल्प सूक्त यजुर्वेद का ३४ वां अध्याय और
अष्टाध्यायी रुद्री का प्रथम अध्याय है ।
छः अति सुंदर एवं ज्ञान प्रभा से आच्छादित सूक्तों
को पिरोकर शिव संकल्प सूक्त की रचना हुई है,
जिसका वर्णन शुक्ल यजुर्वेद में आता है। हर सूक्त
का अंत इस वाक्यांश के साथ होता है –
“तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु” अर्थात – “उस ईश्वरीय
शुभ संकल्प में मेरा मन रमण करे।” यह सूक्त एक
अद्भुत एवं गहन प्रार्थना है जिसके द्वारा मन अत्यंत
शांत हो जाता है एवं साधक को अपने आत्म स्वरुप
को पहचानने की क्षमता प्राप्त होती है।
को पिरोकर शिव संकल्प सूक्त की रचना हुई है,
जिसका वर्णन शुक्ल यजुर्वेद में आता है। हर सूक्त
का अंत इस वाक्यांश के साथ होता है –
“तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु” अर्थात – “उस ईश्वरीय
शुभ संकल्प में मेरा मन रमण करे।” यह सूक्त एक
अद्भुत एवं गहन प्रार्थना है जिसके द्वारा मन अत्यंत
शांत हो जाता है एवं साधक को अपने आत्म स्वरुप
को पहचानने की क्षमता प्राप्त होती है।
संकल्प
(यजुर्वेद अध्याय ३४, मंत्र १-६)
(यजुर्वेद अध्याय ३४, मंत्र १-६)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥१॥
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥१॥
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः
सदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥२॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥३॥
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥४॥
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः
यस्मिश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु ॥५॥
सुसारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥६॥
अर्थ
वह दिव्य ज्योतिमय शक्ति (मन) जो हमारे जागने की अवस्था में
बहुत दूर तक चला जाता है, और हमारी निद्रावस्था में हमारे पास
आकर आत्मा में विलीन हो जाता है,वह प्रकाशमान श्रोत जो हमारी
इंद्रियों को प्रकाशित करता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त हो ॥१॥
जिस मन की सहायता से ज्ञानीजन (ऋषिमुनि इत्यादि) कर्मयोग
की साधना में लीन यज्ञ,जप,तप करते हैं, वह (मन) जो सभीजनों
के शरीर में विलक्षण रुप से स्थित है, मेरा वह मन शुभसंकल्प
युक्त हो ॥२॥
जो मन ज्ञान, चित्त , व धैर्य स्वरूप , अविनाशी आत्मा से युक्त
इन समस्त प्राणियों के भीतर ज्योति सवरुप विद्यमान है, वह
मेरा मन शुभसंकल्प युक्त हो ॥३॥
जिस शाश्वत मन द्वारा भूत,भविष्य व वर्तमान काल की सारी
वस्तुयें सब ओर से ज्ञात होती हैं,और जिस मन के द्वारा
सप्तहोत्रिय यज्ञ (सात ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला यज्ञ)
किया जाता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त हो ॥४॥
जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाये व सामवेद व यजुर्वेद के मंत्र उसी
प्रकार स्थापित हैं, जैसे रथ के पहिये की धुरी से तीलियाँ जुड़ी होती
हैं, जिसमें सभी प्राणियों का ज्ञान कपड़े के तंतुओं की तरह बुना
होता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त हो ॥५॥
जो मन हर मनुष्य को इंद्रियों का लगाम द्वारा उसी प्रकार घुमाता
है, तिस प्रकार एक कुशल सारथी लगाम द्वारा रथ के वेगवान
अश्वों को नियंत्रितकरता व उन्हें दौड़ाता है, आयुरहित (अजर) तथा
अति वेगवान व प्रणियों के हृदय में स्थित मेरा वह मन शुभसंकल्प
युक्त हो ॥६॥
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