दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्ज़ां हैं तेरी आवाज़ के साए तिरे होंटों के सराब दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स ओ ख़ाक तले खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तिरी साँस की आँच अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम दूर उफ़ुक़ पार चमकती हुई क़तरा क़तरा गिर रही है तिरी दिलदार नज़र की शबनम
इस क़दर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ रक्खा है दिल के रुख़्सार पे इस वक़्त तिरी याद ने हात यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़ ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
बतियाँ दौरावत’ के सभी श्रोताओं का मीराबाई के साथ चल रहे हमारे सफर में सादर स्वागत । आज का मीराबाई का पद मेरे दिल के बहुत ही करीब है, क्यूँ कि इसकी स्वररचना मेरी अत्यंत पसंदीदा, गुरुसमान स्व. शोभा गुर्टूजी की है, और इसको मैंने स्वयं शोभाताई से ही सीखा है। मीराबाई को जब उनके मानसदेव गिरिधर गोपाल मिल जाते हैं, तब उनके पदों में एक समर्पणभाव छलकता है। परंतु जब मीराबाई हरिमिलन से वंचित रहतीं हैं, चाहे यह विरह कुछ क्षणों का ही क्यूं न हो- तब वे जलबिन मछली की तरह तड़पतीरहती हैं। विरह से व्याकुल हो उठतीं हैं। जैसे यह विरह जन्मजन्मांतर का हो ! और कहती है, लागी सोही जाणे, कठण लगण दी पीर आज का मीरा भजन इसी बिरह की अगन, पीडा को चित्रित करता है। सांवरिया, आज्यो म्हारा देस, थारी सांवरी सुरतवालो भेस, आज्यो म्हारा देस ॥ पद की स्वररचना का आधार है राग अहिरभैरवी- या अहिरी तोडी का। पद के शुरुआत की 'सांवरियां…’ की पुकार उस कान्हा को वहां सुनाई देगी, जहाँ भी वो होगा। इस पुकार में मीरा की सारी तड़प उजागर होती है।
आइए, सुनते हैं, मीराबाई की पुकार - 'साँवरिया, आज्यो म्हारा देस'.
एक बार मां पार्वती जी ने भोलेनाथ से कहा की आज आप नट के वेश धर के डमरू बजाइए जिससे मुझे परम सुख की अनुभूति होगी।तो शिव ने कहा की हे गौरी आप जो मुझे नृत्य करने कह रही हैं मुझे चार चिंता हो रही है जिससे किस तरह से बचा जायेगा।
पहली चिंता अमृत के जमीन पर टपकने से बाघंबर जो मैंने पहन रखा है वो जीवित होकर बाघ बन जायेगा और बसहा को खा जायेगा।
दूसरी चिंता सिर पर से सर्प गिर जायेंगे और जमीन पर फैल जायेंगे और कार्तिक ने जो मयूर को पाला है उसे पकड़ के खा लेगा।
तीसरी चिंता मेरे जटा से गंगा छलक जायेगी और सारी जमीन पर फैल जाएगी और जिसके सैकड़ों मुख हो जायेंगे जिसे समेटना मुश्किल हो जायेगा।
चौथी चिंता ये हो रही है की मैं मुंड का माला पहना हूं
वो टूट कर गिर जाएगा और सारे जग जायेंगे और आप भाग जाएगी डर कर तो मेरा नाच कौन देखेगा।
पर महाकवि विद्यापति कहते हैं की उन्होंने सब बाधाओं को सम्हालते हुए गौरी का मान रखा और अपना नृत्य दिखाया।
नमस्ते, 'बतियां दौरावत’ के सभी सुधी श्रोताओं को आज ले चलती हूँ नंदनंदन के दर्शन कराने। भक्त सिरोमणि मीराबाई की नज़रोंसे, उन्हें जैसा दिखाई दिये, वैसे। यूँ तो श्रीकृष्ण परमात्मा की छबि का वर्णन करनेवाले अनगिनत पद मिलते हैं, और मीराबाई भी इस छबि से मोहित रहीं। उन्होंने भी इस छबि का वर्णन करने हेतु कई पद लिखें ।आज जो पद हम सुनेंगे उसके शब्द है
जबसे मोहिं नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई तबसे परलोक लोक कछु ना सुहाई
गिरिधर गोपाल के मुखचंद्र से मीराबाई को तुरन्त ही लगाव हो गया। सिरपर धारण किए हुए मुकुटपर लहर रहा मोरपिच्छ, भालप्रदेशपर केसर तिलक,
मोरन की चंद्रकला, सीस मुकुट सोहे केसरको तिलक भाल, तीन लोक मोहे
अर्धोन्मीलित नयन, उगते सूरज के वर्णवाले अधरोंपर मंद मंद मुसकान, कानों में मकराकृती कुंडल, जिनकी प्रभा कपोल - अर्थात् गालों पर छा रही है। और - यह प्रतिमा मुझे बहुतही मनभावन लगती है, कि गालों पर छा रही कुंडलप्रभा कुंडलों की दोलायमान होने की वजह से ऐसा लग रहा है मानों मन का मीन मानसरोवर को त्यागकर कुंडलों के मकर से मिलने के लिए गालोंपर आ पहुंचा हो…।
श्रीकृष्ण परमात्मा की विलोभनीय छबि का वर्णन करते समय मीरा अपनेआप को किसी भी सर्वसामान्य गोपी की भूमिका में विलीन कर देती हैं। यह भावना किसी भी गोपी की हो सकती है, मीरा की अकेली की नहीं।
“चालां वाही देस”, या “माई म्हाने सुपणां में परणी गोपाल”, या मीराबाई का सर्वज्ञात पद “मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई” इन सारे पदों में जो भावना है, वह मीरा की अकेली की है, कोई अन्य सामान्य गोपी ऐसी भावना महसूस नहीं कर सकती। यह तो मीरा की प्रतिभा की उडान है। यह है श्रीकृष्ण परमात्मा से एकाकार होने पर जो आनंद प्राप्त हुआ उसका आविष्कार!
चूंकि यह भावना मीरा की अकेली की नहीं, इसलिए इसे युगलगीत की तरह प्रस्तुत किया है। इसे स्वर दिया है, मेरी दो गुणी विद्यार्थिनियों- शरयू दाते तथा शमिका भिडे ने ।
आइए, सुनते हैं, युगलगीत “जबसे मोहिँ नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई तबसे परलोक लोक कछु न सुहाई।”
नैना देवी (२७ सितम्बर १९१७ - १ नवम्बर १९९३) जिन्हें नैना रिपजीत सिंह के नाम से भी जाना जाता है, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भारतीय गायिका थीं, जो मुख्यतः अपनी ठुमरी प्रस्तुतियों के लिए जानी जाती थीं, हालाँकि उन्होंने दादरा और ग़ज़लें भी गाईं। वह ऑल इंडिया रेडियो और बाद में दूरदर्शन में संगीत निर्माता थीं। उन्होंने अपनी किशोरावस्था में गिरजा शंकर चक्रवर्ती से संगीत की शिक्षा शुरू की, बाद में १९५० के दशक में रामपुर-सहसवान घराने के उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां और बनारस घराने की रसूलन बाई से इसे फिर से शुरू किया। कोलकाता के एक कुलीन परिवार में जन्मी, उनकी शादी १६ साल की उम्र में कपूरथला स्टेट के शाही परिवार में हुई थी।
लइ ना गये बेइमनऊ, हमका लइ ना गये लइ ना गये दगाबजऊ हमका लइ ना गये
चार महीना बरखा के लागे बूँद बरसे बदरवा, हमका लइ ना गये
चार महीना जाड़ा के लागे थर-थर काँपे बदनवा, हमका लइ ना गये
आज मीराबाई की सफर में एक बार फिर स्वागत। मीराबाई ने उठते-बैठते, सोते-जागते, गिरिधर गोपाल
को ही अपने पति के रूप में देखा, इतना ही नहीं,
बल्कि ईश्वर से खुद की शादी भी रचते हुए देखी..
उन्होंने इस घटना को एकबार नहीं, बल्कि बारबार
जिया।
“माई म्हने सुपणां में परणी गोपाल...”
आम तौर से इस पद के काव्य के जो शब्द पाये
जाते हैं, उनमें यह उल्लेख मिलता है, कि
“छप्पन कोटां जणां पधार्या, दूल्हो सिरी बृजराज”
इत्यादि । परंतु, मेरे पद को काव्य कुछ अलग है,
इसमें मीराबाई कहतीं हैं, “मत करो म्हारी ब्याव सगाई, क्यूं बांधो जंजाल?” यह काव्य मुझे कुछ समय पहले प्राप्त हुआ, जब मैंने मीराबाई के जन्मस्थल मेड़ता में रचाये जा रहे एक दृक्श्राव्य प्रस्तुति (light and Sound show)
के लिए गाया। इस तरह से एक ही पद के पाठभेद
प्राप्त होते हैं यह घटना केवल मीराबाई के पदों के
बारे में ही नहीं, बल्कि अन्य मध्ययुगीन संतकवियों
की रचनाओं के बारे में भी पाई जाती है। पाठभेद जो भी हो, घटना एकही है, मीराबाई ने
देखा हुआ सपना - जिसमें वे अपने खुद के
परिणय का वर्णन करती हैं। आइए, सुनते हैं “परणी गोपाल ।” - अश्विनी भिड़े देशपाण्डे
शिव कैलाशो के वासी, धौली धारों के राजा, शंकर संकट हरना, शंकर संकट हरना ॥
शिव कैलाशो के वासी, धौली धारों के राजा, शंकर संकट हरना, शंकर संकट हरना ॥तेरे कैलाशों का अंत ना पाया, तेरे कैलाशों का अंत ना पाया, अंत बेअंत तेरी माया, ओ भोले बाबा, अंत बेअंत तेरी माया, शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा, शंकर संकट हरना, शंकर संकट हरना ॥
बेल की पत्तियां भांग धतुरा, बेल की पत्तियां भांग धतुरा, शिव जी के मन को लुभायें, ओ भोले बाबा, शिव जी के मन को लुभायें शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा, शंकर संकट हरना, शंकर संकट हरना ॥
एक था डेरा तेरा, चम्बे रे चौगाना, दुज्जा लायी दित्ता भरमौरा, ओ भोले बाबा, दुज्जा लायी दित्ता भरमौरा, शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा, शंकर संकट हरना, शंकर संकट हरना ॥
शिव कैलाशो के वासी, धौली धारों के राजा, शंकर संकट हरना, शंकर संकट हरना ॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते। संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है॥१॥
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो॥२॥
स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं॥३॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्। विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोक शोकहतं च समस्तम्॥४॥
जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है॥४॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावन्निजपरिवारो रक्तः। पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥५॥
जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है॥५॥
जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है॥६॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः। वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः, परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः॥७॥
बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है॥७॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः। कस्य त्वं वा कुत अयातः, तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः॥८॥
कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो॥८॥
आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता॥१०॥
तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है॥१३॥
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः। पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः॥१४॥
बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो॥१४॥
क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है॥१५॥
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः। करतलभिक्षस्तरुतलवासः, तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥१६॥
सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है॥१६॥
कुरुते गङ्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्। ज्ञानविहिनः सर्वमतेन, मुक्तिं न भजति जन्मशतेन॥१७॥
किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है॥१७॥
सुर मंदिर तरु मूल निवासः, शय्या भूतल मजिनं वासः। सर्व परिग्रह भोग त्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः॥१८॥
देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी॥१८॥
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है॥२०॥
रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं॥२२॥
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः। इति परिभावय सर्वमसारम्, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥२३॥
तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझ कर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो॥२३॥
तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ॥२४॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं॥२६॥
गेयं गीता नाम सहस्रं, ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्। नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम्॥२७॥
भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो॥२७॥
सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः। यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥२८॥
सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं॥२८॥
धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है॥२९॥
गुरु के चरण कमलों का ही आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, इस प्रकार मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो॥३१॥
इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए॥३२॥
पाकिस्तानी फिल्म 'गुमनाम' (१९५४) में इक़बाल बानो का गाया गीत
पायल मे गीत है छम छम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के
तू पिया से मिल कर आई है बस आज से नींद परायी है तू पिया से मिल कर आई है बस आज से नींद परायी है देखेगी सपने बालम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के
मैंने भी किया था प्यार कभी मैंने भी किया था प्यार कभी आई थी यही झनकार कभी अब गीत मैं गाती हूँ गम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के
ये जीवन भर का रोग सखी तोहे पगली कहेंगे लोग सखी ये जीवन भर का रोग सखी तोहे पगली कहेंगे लोग सखी
याद आएगे वादे बालम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के तू लाख चले री गोरी थम थम के पायल मे गीत है छम छम के