मीरा का विवाह बारह वर्ष की उम्र में मेवाड़ के
महाराणा संग्रामसिंहजी अर्थात् राणा सांगाजी
के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ।
महाराणा सांगा और दिल्लीपति बादशहा बाबर
इन दोनों के बीच जो जंग सन 1527 में
‘खानवा की लडाई' के नामसे मशहूर हुई,
उसमें राणा सांगा, उनके बेटे मीरा के पति
भोजराज, मीरा के पिता रतनसिंह, सभी
मारे गये और इस दुर्घटना के बाद से मीरा
का बुरा वक्त शुरू हुआ। राणे भेजा विष
का प्याला' इस उल्लेख में जिस 'राणा' का
जिक्र है, वह है मीरा के देवर विक्रमादित्य
जिन्होंने मीरा को 'बावरी' का नामाभिधान
देकर, उसे ज़हर पिलाने के, या फिर फूलों
के साथ जहरीला नाग भेजकर उसे खतम
करने के षड्यंत्र रचे |
परंतु मीराबाई अपनी भक्ति के बलपर इन
परंतु मीराबाई अपनी भक्ति के बलपर इन
सभी खतरों से सहीसलामत निकल गई।
मीरा ने कभी भी इन खतरों से जूझने के
लिए अपने गिरिधर गोपाल ही सहायता
नहीं माँगी। उनका भरोसा था - नामस्मरण
के बल पर। सब संकटों का एकही उपाय वे
जानती थीं।
आइए, आज जो पद हम सुनेंगे उसकी भाषा
आइए, आज जो पद हम सुनेंगे उसकी भाषा
कुछ अलग है। जैसे लोकभाषा हो... और
इसी कारण इस पद की संगीतरचना भी
लोकसंगीत से नाता दर्शानेवाली। इस पद में
मीराबाई सारे भगत गणोंको मानों यह सीख
पढ़ा रही है कि सब कष्टों का एकही इलाज है
ईश्वर का नामस्मरण! वे कहती हैं,
“सिसोद्यो रुठ्यो तो म्हारो कांई कर लेसी?”
और इनका जबाब है,
“म्हें तो गुण गोविंद का गास्यां हो माई ॥”
“म्हें तो गुण गोविंद का गास्यां”
बस, एक नामस्मरण से ही सभी भौतिक और
लौकिक दुखों का नाश होगा, इसलिए, हरएक
साँस के साथ नाम की माला जपनी चाहिए।
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