गुरुवार, 10 अक्टूबर 2024

जय-जय भैरवि असुर भयाउनि.../ महाकवि विद्यापति / प्रस्तुति : कवि कुमार विश्वास

https://youtu.be/VxftS1AzkjA  


जय-जय भै‍रवि असुर भयाउनि व्याख्या सहित 
पशुपति भामिनी माया
सहज सुमति वर दियउ गोसाउनि
अनुगति गति तुअ पाया

वासर रैनि सबासन शोभित
चरण चन्‍द्रमणि चूड़ा
कतओक दैत्‍य मारि मुख मेलल
कतओ उगिलि कएल कूड़ा

सामर बरन नयन अनुरंजित
जलद जोग फुलकोका
कट-कट विकट ओठ पुट पांडरि
लिधुर फेन उठ फोंका

घन-घन-घनय घुंघरू कत बाजय
हन-हन कर तुअ काता
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक
पुत्र बिसरू जनि माता

‘जय-जय भैरवि असुर भयाउनि’ कविता का सारांश...

‘जय जय भैरवि असुर भयाउनि’ कविता मैथिल महाकवि 
‘विद्यापति’ द्वारा रचित है। इस कविता के माध्यम से कवि ने 
माँ जगदंबा के विभिन्न रूपों का गुणगान किया है। वह इस 
कविता के माध्यम माँ जगदंबा की वंदना करते हुए कहते हैं 
कि हे माँ! असुरों के लिए तो आप भयानक और काल का 
रूप हैं, परंतु अपने पति शिव की प्रेयसी हैं यानी आप जहाँ 
अत्याचारियों के लिए आप काल के समान है तो वही प्रेम और 
दया की मूर्ति भी हैं। जहाँ आपका एक पैर दिन-रात शवों के 
ऊपर रहता है, वहीं दूसरी तरफ आपके माथे पर चंदन का 
मंगल टीका भी सुशोभित है, जो मंगल का प्रतीक है।
हे माँ भगवती! आपके विभिन्न रूपों का इतना अच्छा वर्णन 
शायद ही कहीं मिले। जहाँ आपका एक रूप सौम्य है, तो 
दूसरा रूप विकराल। आपके कमर पर घुंधरू की घन-घन 
प्रतिध्वनि बज रही है, तो हाथ में खड़ग है। इस तरह आप के 
अनेक रूप हैं। आप वीरता और शौर्य का प्रतीक है, तो प्रेम 
और दया की साक्षात मूर्ति का भी प्रतीक हैं।
इस कविता में कवि ने  माता का गुणगान वीर रस और श्रंगार 
रस दोनों रसों में किया है। 
बिहार के मिथिला क्षेत्र में इस भजन का बहुत महत्व है। क्षेत्र के 
हर शुभ अनुष्ठान पर यह गीत एक तरह से अनिवार्य माना जाता है। 
कवि डॉ कुमार विश्वास ने भी इस भजन को अपने स्वर में गाया है।  

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