सोमवार, 10 जनवरी 2022

खेलत में को काको गुसैयाँ.../ अष्टछाप कीर्तन / पुष्टिमार्गीय हवेली संगीत

 https://youtu.be/9Ta_1rJNL_M 

खेलत में को काको गुसैयाँ...
-सूरदास 
अष्टछाप कीर्तन 
पुष्टिमार्गीय हवेली संगीत 

खेलत में को काको गुसैयाँ।

हरि हारे जीते श्रीदामा,
     बरबसहीं कत करत रिसैयाँ॥

जात-पाँति हम सो बड़ नाहीं,
          नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।

अति अधिकार जनावत यातैं,
        अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ !

रूठि करै तासौं को खेलै,
      रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ॥

सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत,
           दाउँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ॥

भावार्थ :-- (सखाओं ने कहा-) `श्याम! खेलने में कौन किसका स्वामी है (तुम व्रजराज के लाड़ले हो तो क्या हो गया )। तुम हार गये हो और श्रीदामा जीत गये हैं, फिर झूठ-मूठ झगड़ा करते हो ? जाति-पाँति तुम्हारी हम से बड़ी नहीं है (तुम भी गोप ही हो) ओर हम तुम्हारी छाया के नीचे (तुम्हारे अधिकार एवं संरक्षण में) बसते भी नहीं हैं । तुम अत्यन्त अधिकार इसीलिये तो दिखलाते हो कि तुम्हारे घर (हम सब से) अधिक गाएँ हैं ! जो रूठने-रुठाने का काम करे, उसके साथ कौन खेले ?' (यह कहकर) सब साथी जहाँ-तहाँ खेल छोड़कर बैठ गये। सूरदास जी कहते हैं कि, मेरे स्वामी तो खेलना ही चाहते थे, इसलिये नन्दबाबा की शपथ खाकर (कि बाबा की शपथ मैं फिर ऐसा झगड़ा नहीं करूँगा) दाँव दे दिया।

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