विचित्र-वर्णाभरणाभिरामेऽभिधेहि वक्त्राम्बुज-राजहंसि । सदा मदीये रसनेऽग्र-रङ्गे गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
O my tongue, since my mouth has become like a lotus by dint of the presencethere of these eloquent, ornamental, delightful syllables, you are like theswan that plays there. As your foremost pleasure, always articulate thenames, “Govinda,” “Dāmodara,” and “Mādhava.”
This indeed is the essence (found) upon ceasing the affairs of mundanehappiness. And this too is to be sung after the cessation of all sufferings.This alone is to be chanted at the time of death of one’s materialbody–”Govinda, Dāmodara, Mādhava!”
हे मेरे मन ! जो जीव हरि भक्ति से विमुख हैं, उन प्राणियों का संग न कर। उनकी संगति के माध्यम से तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी क्योंकि वे तेरी भक्ति में रुकावट पैदा करते हैं, उनके संग से क्या लाभ? [१]
आप चाहे कितना ही दूध साँप को पिला दो, वो ज़हर बनाना बंद नहीं करेगा एवं आप चाहे कितना ही कपूर कौवे को खिला दो वह सफ़ेद नहीं होगा, कुत्ता (स्वान) कितना ही गंगा में नहा ले वह गन्दगी में रहना नहीं छोड़ता। [२]
आप एक गधे को कितना ही चन्दन का लेप लगा लो वह मिट्टी में बैठना नहीं छोड़ता, मरकट (बन्दर) को कितने ही महंगे आभूषण मिल जाए वह उनको तोड़ देगा। एक हाथी द्वारा नदी में स्नान करने के बाद भी वह रेत खुद पर छिड़कता है। [३]
भले ही आप अपने पूरे तरकश के तीर किसी चट्टान पर चला दें, चट्टान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। श्री सूरदास जी कहते हैं कि "एक काले कंबल दूसरे रंग में रंगा नहीं जा सकता (अर्थात् जिस जीव ने ठान ही लिया है कि उसे कुसंग ही करना है तो उसे कोई नहीं बदल सकता इसलिए ऐसे विषयी लोगों का संग त्यागना ही उचित है।
तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा धरती के काग़ज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी रहनी थी
रेती पर लिखा नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था मलियानिल के बहकाने से, बस एक प्रभात निखारना था गूंगे के मनो-भाव जैसे वाणी स्वीकार न कर पाए वैसे ही मेरा ह्रदय-कुसुम असमर्पित सूख बिखरना था
कोई प्यासा मरता जैसे जल के अभाव में विष पी ले मेरे जीवन में भी कोई ऐसी मजबूरी रहनी थी
इच्छाओं से उगते बिरवे, सब के सब सफल नहीं होते हर कहीं लहर के जूड़े में अरुणारे कमल नहीं होते माटी का अंतर नहीं मगर अंतर तो रेखाओं का है हर एक दीप के जलने को शीशे के महल नहीं होते
दर्पण में परछाईं जैसे दीखे तो पर अनछुई रहे सारे सुख सौरभ की मुझसे, वैसी ही दूरी रहनी थे
शायद मैंने गत जनमों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे चातक का स्वर सुनने वाले बादल वापस मोड़े होंगे ऐसा अपराध हुआ होगा, फिर जिसकी क्षमा नहीं मिलती तितली के पर नोचे होंगे, हिरणों के दृग फोड़े होंगे
अनगिनती क़र्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िंदगी भर मेरे तन को बेचैन भटकना था, मन में कस्तूरी रहनी थी
धोती लोटा पतरा पोथी एहो सभ लेबन्हि छिनाई। जो किछु बजता नारद बाभन दाढ़ी दे धिसिआएब, गे माई॥
भन विद्यापति सुनु हे मनाइन दृढ़ कर अपन गेआन। सुभ सुभ कए सिरी गौरी बियाहू गौरी हर एक समान, गे माई॥
*व्याख्या*
हे सखी! यदि इस वृद्ध शिव को मेरा जामाता बनाया गया तो फिर मैं इस घर में नहीं रहूँगी। मेरी इस कन्या के तीन शत्रु हो गए। एक तो ब्राह्मण ही शत्रु हुआ जिसने मेरी कन्या का इस बूढ़े से विवाह का संयोग-विधान किया। दूसरे इसके पिता हिमालय ने ऐसे वृद्ध एवं सुरुचिहीन वर का चयन कर शत्रुता का व्यवहार किया है। तीसरा शत्रु ब्राह्मण नारद है जो मेरी कन्या की विधि मिलाकर इस वृद्ध दामाद को मेरे द्वार पर ले आया। मैना कहती है कि मैं शिव के डमरु और रुंडमाला को तोड़ डालूँगी। मैं इसके बैल को खदेड़ दूँगी और बरात को भगा दूँगी और फिर अपनी पुत्री को भगाकर कहीं दूर ले जाऊँगी। हे सखी! मैं इस ब्राह्मण नारद का धोती, लोटा, पोथी-पत्रा सब छिनवा लूँगी और यदि इसने अनाकानी की तो मैं स्वयं उसकी दाढ़ी पकड़ कर घसीटूँगी। मैना के इन बचनों को सुनकर विद्यापति के शब्दों में ही उसकी सखी कहती है कि मैना! सुनो, तू जो शिव के वरत्व के संबंध में अनर्गल प्रलाप कर रही है वह अज्ञान के कारण ही है। तू शिव एवं पार्वती के विवाह का मंगल विधि के साथ विवाह कर, क्योंकि ये दोनों एक समान अर्थात् एक दूसरे के सर्वथा उपयुक्त हैं।
न जन्म लेता अगर कहीं मैं धरा बनी ये मसान होती न मन्दिरों में मृदंग बजते न मस्जिदों में अजान होती
लिए सुमिरनी डरे हुए से बुला रहे हैं मुझे पुजेरी जला रहे हैं पवित्र दीये न राह मेरी रहे अन्धेरी हजार सजदे करें नमाजी न किंतु मेरा जलाल घटता पनाह मेरी यही शिवाला महान गिरजा सराय मेरी मुझे मिटा के न धर्म रहता न आरती में कपूर जलता न पर्व पर ये नहान होता न ये बुतों की दुकान होती
न जन्म लेता अगर कहीं मैं...
मुझे सुलाते रहे मसीहा मुझे मिटाने रसूल आये कभी सुनी मोहनी मुरलिया कभी अयोध्या बजे बधाये मुझे दुआ दो बुला रहा हूं हजार गौतम, हजार गान्धी बना दिये देवता अनेकों मगर मुझे तुम ना पूज पाये मुझे रुला के न सृष्टि हँसती न सूर, तुलसी, कबीर आते न क्रास का ये निशान होता न ये आयते कुरान होती
न जन्म लेता अगर कहीं मैं....
बुरा बता दे मुझे मौलवी या दे पुरोहित हजार गाली सभी चितेरे शकल बना दें बहुत भयानक, कुरूप, काली मगर यही जब मिलें अकेले सवाल पूछो, यही कहेंगे कि; पाप ही जिन्दगी हमारी वही ईद है वही दिवाली न सींचता मैं अगर जडों को तो न जहां मे यूं पुण्य खिलता न रूप का यूं बखान होता न प्यास इतनी जवान होती
न जन्म लेता अगर कहीं मैं धरा बनी ये मशान होती न मन्दिरों में मृदंग बजते न मस्जिदों में अजान होती
आइए हाथ उठाएँ हम भी हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
आइए अर्ज़ गुज़ारें कि निगार-ए-हस्ती ज़हर-ए-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फ़र्दा भर दे
वो जिन्हें ताब-ए-गिराँ-बारी-ए-अय्याम नहीं उन की पलकों पे शब ओ रोज़ को हल्का कर दे जिन की आँखों को रुख़-ए-सुब्ह का यारा भी नहीं उन की रातों में कोई शम्अ मुनव्वर कर दे जिन के क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं उन की नज़रों पे कोई राह उजागर कर दे
जिन का दीं पैरवी-ए-किज़्ब-ओ-रिया है उन को हिम्मत-ए-कुफ़्र मिले जुरअत-ए-तहक़ीक़ मिले जिन के सर मुंतज़िर-ए-तेग़-ए-जफ़ा हैं उन को दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले
इश्क़ का सिर्र-ए-निहाँ जान-ए-तपाँ है जिस से आज इक़रार करें और तपिश मिट जाए हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो काँटे की तरह आज इज़हार करें और ख़लिश मिट जाए
तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा धरती के काग़ज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी रहनी थी
रेती पर लिखा नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था मलियानिल के बहकाने से, बस एक प्रभात निखरना था गूंगे के मनो-भाव जैसे वाणी स्वीकार न कर पाए वैसे ही मेरा ह्रदय-कुसुम असमर्पित सूख बिखरना था कोई प्यासा मरता जैसे जल के अभाव में विष पी ले मेरे जीवन में भी कोई ऐसी मजबूरी रहनी थी
इच्छाओं से उगते बिरवे, सब के सब सफल नहीं होते हर कहीं लहर के जूड़े में अरुणारे कमल नहीं होते माटी का अंतर नहीं मगर अंतर तो रेखाओं का है हर एक दीप के जलने को शीशे के महल नहीं होते दर्पण में परछाईं जैसे दीखे तो पर अनछुई रहे सारे सुख सौरभ की मुझसे, वैसी ही दूरी रहनी थी
शायद मैंने गत जनमों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे चातक का स्वर सुनने वाले बादल वापस मोड़े होंगे ऐसा अपराध हुआ होगा, फिर जिसकी क्षमा नहीं मिलती तितली के पर नोचे होंगे, हिरणों के दृग फोड़े होंगे अनगिनती क़र्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िंदगी भर मेरे तन को बेचैन भटकना था, मन में कस्तूरी रहनी थी
गीतकार : शम्स लखनवी एवं बेहज़ाद लखनवी संगीतकार: वसंत देसाई फिल्म: शीशमहल 1950
इस गीत को पद्मश्री पुष्पा हंस ने गाया है
और फिल्म में अभिनय भी किया है।
आदमी वो है मुसीबत से परेशान ना हो-2 कोई मुश्किल नहीं ऐसी के जो आसान ना हो-2 आदमी वो है मुसीबत से परेशान ना हो
ये हमेशा से है तक़दीर की गर्दिश का चालन-2 चाँद सूरज को भी लग जाता है एक बार ग्रहण वक़्त की देख के तब्दीलियां हैरान ना हो- 2 आदमी वो है मुसीबत से परेशान ना हो
ये है दुनियां यहाँ दिन ढलता है शाम आती है- 2 सुबह हर रोज नया ले के पयाम आती है जानी बूझी हुई बातों से तू अन्ज़ान ना हो आदमी वो है मुसीबत से परेशान ना हो
कोई मुश्किल नहीं ऐसी के जो आसान ना हो आदमी वो है मुसीबत से परेशान ना हो
ऐ इश्क़ न छेड़ आ आ के हमें हम भूले हुओं को याद न कर पहले ही बहुत नाशाद हैं हम तू और हमें नाशाद न कर क़िस्मत का सितम ही कम नहीं कुछ ये ताज़ा सितम ईजाद न कर यूँ ज़ुल्म न कर बे-दाद न कर ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
हम रातों को उठ कर रोते हैं रो रो के दुआएँ करते हैं आँखों में तसव्वुर दिल में ख़लिश सर धुनते हैं आहें भरते हैं ऐ इश्क़ ये कैसा रोग लगा जीते हैं न ज़ालिम मरते हैं ये ज़ुल्म तू ऐ जल्लाद न कर ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
जिस दिन से बँधा है ध्यान तिरा घबराए हुए से रहते हैं हर वक़्त तसव्वुर कर कर के शरमाए हुए से रहते हैं कुम्हलाए हुए फूलों की तरह कुम्हलाए हुए से रहते हैं पामाल न कर बर्बाद न कर ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर