शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष २०११ मंगलमय हो !!!







जाते हुए साल 2010 को विदा करते हुए  और  आते हुए साल 2011 
का स्वागत करते हुए, इस विश्वव्यापी अंतर्जाल के विशाल ब्लॉगर 
परिवार के लिए मेरी असंख्य मंगलकामनाएं !
'रश्मि-रेख' के समस्त समर्थकों, शुभचिंतकों, टिप्पणीकर्ताओं एवं विजिटर्स के अनुग्रह का मैं आभारी हूँ |
मैं Blogger साइट  का  भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ, जिसके 
माध्यम से मैं आप सब तक पहुँच सका |
- अरुण मिश्र.

              

                       
   
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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कितने दिलक़श ये बेल-बूटे हैं...

ग़ज़ल 

-अरुण मिश्र    



            हम   जिन्हें,  जानते  हैं,  झूठे हैं।
        आज  वो    हमसे,   रूठे-रूठे   हैं।।

        सिलवटें  माथे  पे,  भवों में  बल।
        कितने दिलक़श  ये  बेल-बूटे हैं।।

        उतने  जोड़े   न,   बहाने   उसने।
        जितने   अरमां,  हमारे  टूटे   हैं।।

        इक तबस्सुम,लबों पे थिरकी है।
        दिल में,  सौ-सौ  अनार  छूटे  हैं।।

        हमने जिनको हैं कुर्सियाँ बख्शीं।
        रहनुमा   कितने  वो  अनूठे   हैं।।

        फैसलों  पे,  हमारी क़िस्मत के।
        दस्तख़त की  जगह,  अँगूठे  हैं।।

        कैसी जम्हूरियत, क्या आज़ादी?
        ख़्वाब    गाँधी  के  हुये,  झूठे  हैं।।

        पिछले  चालीस  बरस में  सारे।
        इन्क़लाबी  तिलिस्म   टूटे   हैं।।

        अश्क़ अपने नहीं,पिये हैं‘अरुन’।
        घूँट   हमने,   लहू   के   घूँटे  हैं।।
                             *

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

प्यार की एक नदी बहती है...

 ग़ज़ल

- अरुण मिश्र     


    यूँ  जु़बां से  तो न ज़हर घोलो।
    जान ग़र चाहिये, तो यूँ बोलो।।


            प्यार की  एक नदी  बहती है।
            दाग़, अपने गुनाह के धो लो।।

   
    हो  न  जायें   मेरे  अरमां  पत्थर।
    ऐ बुतों! अब तो कुछ हिलो-डोलो।।


            इस क़फ़स की हैं तीलियाँ फ़ानी।
            शौके़-परवाज़, अपने  पर तोलो।।


    ख़ुद - बख़ुद    आयेगी    हवा   ताज़ा।
    तुम ’अरुन’ सिर्फ़, खिड़कियाँ खोलो।।
                               *

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

है जीवन-भट्ठी में दहना...

ग़ज़ल

- अरुण मिश्र


मुश्क़िल  क्या है,  मुश्क़िल कहना।
मुश्क़िल   तो    है,    आसां   रहना।।


यूँ  ही   कुछ  कम,  मुश्क़िलात  हैं?
फिर क्यू मुश्क़िल   कहना-सुनना।।


ऊँची  -  ऊँची        मीनारों       को।
आज   नहीं    तो,   कल  है  ढहना।।


रोटी   के    कुन्दन    की   ख़ातिर।
है   जीवन -  भट्ठी    में     दहना।।


फूलों   के    अचकन   उतार  कर।
परियों  ने  क्यूँ   बख्तर    पहना??


नाज़ुक,  नर्म,  गुलबदन   ग़ज़लें।
उफ़ !   लफ़्ज़ों  का   भारी  गहना।।


आसां   शेर'   नहीं    कह   सकते।
अगर  ’अरुन’  तो  चुप ही  रहना।।
                       *

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

वो उसका आना मुझे लूट के जाना ऐसा

ग़ज़ल 

- अरुण मिश्र.

वो  उसका  आना,  मुझे  लूट के  जाना ऐसा।
था   मुहब्बत  का,  मेरे  पास   खजाना ऐसा॥


हुआ अमीर वो, मुझको भी कुछ कमी न हुई।
अज़ीब  लगता  है,  पर   है  ही फ़साना ऐसा॥


हज़ार   बार   चले ,   तो   हज़ार  बार   लगे।
अचूक  बान   नयन  के ;  है  निशाना  ऐसा॥


न कोई ज़ुल्म,न ज़ालिम,जियें सुक़ून से लोग।
ऐ  काश ! आये  कभी,  कोई  ज़माना  ऐसा॥


’अरुन’  ये  गहने  गुनों के,  बहुत  पुराने  हैं।
कोई    खरीदेगा   क्यूँ ,  माल  पुराना  ऐसा॥

                               *

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

ज़रा विसाल के बाद...

 ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ! दोस्त,
 तेरे   जमाल  की   दोशीज़गी   निखर  आयी ||
                                                                             - फ़िराक गोरखपुरी. 

प्रथम-भोर...
- अरुण मिश्र 







                                      

सोमवार, 29 नवंबर 2010

शफ़्फ़ाफ़ हीरे लखनऊ !

- अरुण मिश्र


Rumi Darwaza
( टिप्पणी : अपने शह्र लखनऊ को  समर्पित, अक्तूबर २००२ में लिखी यह ग़ज़ल, इसके प्रसिद्ध बाज़ार हज़रतगंज के २०० वर्ष पूरे होने  के मौके पर ब्लागार्पित कर रहा हूँ | इसके एक अंश  को स्वर देने  के लिए उस्ताद जमील रामपुरी साहब का आभारी हूँ | फोटोग्राफ्स गूगल सर्च एवं  टाइम्स ऑफ़ इंडिया से साभार| )

: किस क़दर होती गुलाबी है अबीरे-लखनऊ :














  


  
ऐ ! अवध   की   खान   के  शफ़्फ़ाफ़   हीरे ,  लखनऊ।
बेशक़ीमत   इल्मो - फ़न   के ,  ऐ  ज़ख़ीरे ,   लखनऊ।।
 
बज़्मे-तहज़ीबो-अदब   के   जल्वों  पे   हो  के  निसार।
हम     हुये     शैदाई     तेरे ,    धीरे  -  धीरे    लखनऊ।।


चार - सू    चर्चा    में    है ,  योरोप   से    ईरान   तक।
लज़्ज़ते - शीरीं - जु़बानी ,    औ’    ज़मीरे  -  लखनऊ।।


लच्क्षिमन जी ने किया  आ कर के बिसरामो-क़याम।
कुछ   तो   ऐसा   है,  तिरे  नदिया  के  तीरे,  लखनऊ।।


गोमती  के  उफ़क  पर ,   देखे   कोई ,  शामे  - अवध।
किस   क़दर   होती    गुलाबी   है ,   अबीरे - लखनऊ।।


है  छटा  दिलकश  तिरी,  है  हुस्न  तेरा  दिल-पिज़ीर।
हार   कर  दिल ,  हम  रहे  हो  कर  असीरे - लखनऊ।।


हिन्द  के   इस   बाग़   में ,   शहों   के   हैं  ढेरों  शजऱ।
कुछ  अलग ,  कुछ  ख़ास है ,  उनमें   समीरे-लखनऊ।।


लखनऊ  को   देख   फिर ,   कोई  नगर  क्यूँ  देखिये?
तेरे     दावे    में     सच्चाई    है ,   सफ़ीरे  -  लखनऊ।।


तुम ‘अरुन’ की शान को,  कुछ कम न करके आँकियो।
ऐ  !  अमीरे - लखनऊ ,  हम   भी  हैं   ‘मीरे’ - लखनऊ।

                                         *

Lucknow Tourism

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बुधवार, 24 नवंबर 2010



 टिप्पणी  :  यह भावानुवाद , पवित्र  श्रृंगवेर पुर घाट , जनपद प्रयाग की सीढ़ियों पर  जुलाई 1995 में हुआ था। इस गंगाष्टक में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने गंगा को लेकर बड़ी ही मनोहारी, लालित्यपूर्ण एवं  भावमयी  कल्पनायें की हैं, जिनका कृतज्ञतापूर्वक अनुवाद कर पुण्यलाभ लेते हुये धन्य होने के लोभ का संवरण मेरा कवि-मन न कर सका। मैं इसके लिये उन अनाम पंडित जी का भी कृतज्ञ हूँ  , जिन्हें गंगास्नान करते हुये इसका पाठ करते सुन कर,मेरे मन में इस भावानुवाद की प्रेरणा जाग्रत हुई | )

















अथ श्री गंगाष्टक भावानुवाद


- अरुण मिश्र



माता    शैलपुत्री    की   सहज   सपत्नी   तुम,
धरती  का   कंठहार  बन  कर  सुशोभित हो।
स्वर्ग-मार्ग  की  हो तुम  ध्वज-वैजयन्ती मॉ-
भागीरथी !  बस   तुमसे   इतनी   है   प्रार्थना-

बसते   हुये   तेरे  तीर,  पीते  हुये   तेरा  नीर,
होते     तरंगित     गंग ,    तेरे   तरंगों   संग।
जपते तव नाम, किये तुझ पर समर्पित दृष्टि,
व्यय   होवे   मॉं !    मेरे   नश्वर    शरीर   का।।

मत्त   गजराजों    के    घंटा - रव   से   सभीत -
शत्रु - वनिताओं   से    वन्दित   भूपतियों  से -
श्रेष्ठ ,    तव     तीर-तरु-कोटर-विहंग ,    गंग ;
तव  नर्क-नाशी-नीर-वासी ,  मछली-कछुआ ||

कंकण स्वर युक्त, व्यजन  झलती बालाओं से -
शोभित   भूपाल   अन्यत्र  का ,  न  अच्छा है |
सहूँ   जन्म-मरण-क्लेश,  रहूँ   तेरे  आर-पार ,
भले  गज,  अश्व,  वृषभ,  पक्षी  या  सर्प   बनूँ  ||
 
नोचें  भले   काक - गीध ,   खाएं  भले  श्वान-वृन्द ,
देव  -  बालाएं      भले ,     चामर      झलें    नहीं |
धारा-चलित, तटजल-शिथिल, लहरों से आन्दोलित,
भागीरथि !    देखूँगा   कब   अपना   मृत   शरीर।।

हरि  के  चरण कमलों  की   नूतन  मृणाल सी है;
माला,  मालती   की   है   मन्मथ  के   भाल  पर।
जय  हो    हे !  विजय-पताका  मोक्ष-लक्ष्मी  की;
कलि-कलंक-नाशिनि,  जाह्नवी ! कर पवित्र हमें।।

साल,  सरल,  तरु-तमाल,  वल्लरी-लताच्छादित,
सूर्यताप-रहित, शंख,  कुन्द,  इन्दु  सम उज्ज्वल।
देव -  गंधर्व -  सिद्ध -   किन्नर -   वधू -  स्पर्शित,
स्नान   हेतु   मेरे   नित्य,  निर्मल   गंगा-जल  हो।।

चरणों    से   मुरारी    के,   निःसृत   है   मनोहारी,
गंगा  -  वारि ,  शोभित   है   शीश   त्रिपुरारी   के।
ऐसी    पापहारी    मॉ - गंगा   का ,   पुनीत   जल,
तारे   मुझे   और   मेरा  तन - मन   पवित्र   करे।।

करती     विदीर्ण     गिरिराज  -   कंदराओं    को ,
बहती  शिलाखंडों  पर  अविरल  गति  से  है  जो;
पाप    हरे ,    सारे     कुकर्मों    का    नाश    करे ,
ऐसी      तरंगमयी      धारा ,     माँ - गंगा     की ||

कल-कल   रव   करते,   हरि- पद-रज  धोते हुए ,
सतत   शुभकारी,   गंग-वारि   कर   पवित्र  मुझे ||

                                *

वाल्मीकि - विरचित  यह  शुभप्रद  जो नर नित्य-
गंगाष्टक    पढ़ता    है    ध्यान    धर    प्रभात   में |
कलि-कलुष-रूपी   पंक ,  धो  कर  निज  गात्र  की ,
पाता   है   मोक्ष ;   नहीं  गिरता   भव - सागर   में ||

                            ***

" इति श्री वाल्मीकि -विरचित गंगाष्टक का भावानुवाद संपूर्ण |"










रविवार, 21 नवंबर 2010

कार्तिक पूर्णिमा पर विशेष



हर हर गंगे !
 












श्रीमहर्षि वाल्मीकि विरचित गंगाष्टक के प्रथम श्लोक का भावानुवाद...   
                                                                        
- अरुण मिश्र                                                                                                                                            
                                                                                                                                                                 

"माता        शैलसुतासपत्नि         वसुधाश्रृंगारहारावलि
 स्वर्गारोहणवैजयन्ति    भवतीं     भागीरथि     प्रार्थये |
 त्वत्तीरे    वसतस्त्वदम्बु    पिबतस्त्वद्वीचिषु   प्रेंखत-
 स्त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे शरीरव्ययः||"
                                                  - महर्षि वाल्मीकि (गंगाष्टक, श्लोक १)


माता    शैलपुत्री     की   सहज   सपत्नी  तुम,
धरती  का  कंठहार   बन  कर  सुशोभित  हो।
स्वर्ग-मार्ग  की  हो तुम  ध्वज-वैजयन्ती मॉ-
भागीरथी !  बस  तुमसे   इतनी   है   प्रार्थना-

बसते   हुये   तेरे   तीर,  पीते  हुये   तेरा नीर,
होते     तरंगित     गंग,    तेरे    तरंगों   संग।
जपते तव नाम, किये तुझ पर समर्पित दृष्टि,
व्यय   होवे    मॉं  !   मेरे   नश्वर   शरीर   का।।
                               *

रविवार, 14 नवंबर 2010

बाल-दिवस पर विशेष



सभी बच्चों को  बाल-दिवस की   शुभकामनायें
- अरुण मिश्र






प्यारे बच्चे, भूखे बच्चे...   

 - अरुण मिश्र

( टिप्पणी :  वर्ष 2002 में बाल-दिवस पर, विद्यालयों में मध्याह्न-भोजन योजना के पक्ष में लिखी गई कविता यथावत प्रकाशित.)


                : भूमिका :

       "सूबे के ऐ ! हुक्मरानों , वक़्त  के आक़ा सुनो।
        नन्हें बच्चों के  हक़ों पे,  डालो न  डाका सुनो।
        देश  की  ऊँची अदालत का भी ऐसा हुक्म है।
        बच्चे अब स्कूलों में ,  ना करेंगे फ़ाक़ा  सुनो।।"

          

        : वेदना :

ये   बच्चे ,  प्यारे   बच्चे  हैं।
ऑखो   के   तारे   बच्चे   हैं।
ये  बच्चे  फूल हैं  बगिया के।
ये    राजदुलारे    बच्चे    हैं।।

        ये  बच्चे, भारत  के  दिल  हैं।
        ये  भारत के  मुस्तक़बिल हैं।
        कुछ   इनमें   नंगे - भूखे   हैं।
        कुछ   बच्चे   सूखे - सूखे   हैं।।

ये  कमखुराक़ के  हैं  शिकार ।
हम  कहें   इन्हें,  स्कूल  चलो।
तुम  कठिन पहाड़े  याद करो।
औ’ आग  पेट की  भूल चलो।।

        इन  बच्चों   को  स्कूलों   में,
        जो मिले  दोपहर का भोजन।
        ढेरों   आयें,  मन   लगा  पढ़ें,
        शिक्षा पे  व्यर्थ न होवे  धन।।

तन-मन से स्वस्थ  यही बच्चे,
लड़      पायेंगे     बीमारी     से।
सम्पदा    बनेंगे    भारत    की;
शिक्षित;  विमुक्त   लाचारी  से।।

        अच्छी    विद्या     ये     सीखेंगे,
        उत्तम   भोजन  से   हो  पोषित।
        होंगे तन-मन से स्वस्थ,सबल,
        कोई   न  सकेगा  कर  शोषित ।।
               
इस  बाल-दिवस पर  मंचो से।
लफ़्फाजी    होगी   बार - बार।
जयकारों  से  घिर ,  नेतागण,
भाषण     उगलेंगे    लगातार।।

        मंचों     से    प्रवचन    उछलेंगे,
        औ’  बुद्धिजीवियों   के   विचार।
        द्यड़ियाली      ऑसू       टपकेंगे,
        बच्चों   के   हित  में   लगातार।।

इस    राजनीति     के    होवेंगे,
लेकिन फिर से बच्चे , शिकार।
कोई      नेता ,     कोई     मंत्री,
ऐ  काश !  कि,  होता  शर्मसार।।
                         *


शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

छठ पर्व पर विशेष

छठ पर्व सभी को मंगलमय हो 


अस्तंगत सूर्य को एक अर्घ्य मेरा भी...

- अरुण मिश्र 


अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||

                              दे   रहीं  असंख्य  अर्घ्य, 
                              गंगा      की      ऊर्मियाँ |
                              धरती   पर   जीवन  के -
                              छंद  ,    रचें    रश्मियाँ ||

चम्पई   उजाला   भी ,  रेशमी   अंधेरा   भी |
अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||


                              ऊर्जित  कर  कण-कण ; 
                              शांत, शमित तेज प्रखर |
                               विहंगों   के  कलरव  में ,
                               स्तुति के  गीत   मुखर ||

ढलता   तो   रात   और  उगे  तो  सवेरा  भी |
अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||


                                 उदय-अस्त की माला 
                                 को   अविरल   फेरता |
                                 सृष्टि - चक्र  - मर्यादा -
                                 मंत्र ,   नित्य   टेरता ||


जीवन उत्थान-पतन,सुख-दुख का फेरा भी |
अस्तंगत   सूर्य  को   एक  अर्घ्य   मेरा  भी ||
                                   *

                                            

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

ज्योति पर्व दीपावली पर विशेष

LakshmiGanesha


दिव्य-ज्योति के शत-शत निर्झर... 

 - अरुण मिश्र 
     
ऑगन ,   द्वार ,   देहरी    पर    शुभ,                 
शत - शत  दीप  जलें,  शुचि-सुन्दर।                        
दीप  -  दीप  से,  दिव्य - ज्योति  के-                           
फूट   रहे  हों ,  शत  -  शत    निर्झर।।
   
          जगर  -  मगर   दीपों   की   लौ   में,         
          करें       लक्ष्मी   -   मइय्या      फेरे।       
          डगर  -  डगर  से , नगर -  नगर  से,       
          भागें      सब      दारिद्र्य   -    अँधेरे ।।    

हे   गजवदन!   विनायक!  गणपति!   
मुदित-मगन हों,सब जन-गण-मन।   
निर्मल   बुद्धि-  विवेक - ज्ञान- युत,   
स्वस्थ- सबल  हों,  भारत के  जन।।        

          पर्व    स्वच्छता   का,  प्रकाश   का,       
          स्वच्छ भित्तियां  औ’   घर- ऑगन।       
          आलोकित    हो   जीवन   का   पथ,       
          तन-मन स्वच्छ, स्वच्छ हो चिंतन।।    

धूम  -  धाम ,   फुलझड़ी  -  पटाखे,   
ख़ुशियां,   खील,   बताशे,   लइय्या।   
बच्चों     की     किलकारी  -  ताली,   
करे  दिवाली    ता  -  ता    थइय्या।।
                                    
          धूप   -   दीप  -   नैवेद्य     समर्पित,       
          सजी    आरती    की    है      थाली।       
          ऋद्धि  -  सिद्धि,  श्री सहित विराजें,       
          शुभ  -  मंगलमय     हो    दीवाली।।
                                     *                       




 पुनश्च :
समस्त गुरुजनों, मित्रों, शुभचिंतकों, समर्थकों एवं दर्शकों (viewers) का  
ज्योति-पर्व पर सादर-सस्नेह शत-शत अभिनन्दन- वंदन | आपके एवं 
आपके परिवार के लिए दीपावली की कोटिशः मंगलकामनाएं |
- अरुण मिश्र.


बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

दीवाली पर विशेष

 
 lighting the diya

चाँद का मुँह तो अमावस को न काला होता...

 - अरुण  मिश्र


ग़र  दिवाली  का नतीजा न  दिवाला    होता |  
चाँद का मुँह तो अमावस को न काला होता ||

तेल - बाती  के  बिना  सारे  दिए   हैं   बेचैन |
रौशनी कैसे हो,  कुछ जलने तो वाला  होता ||

शकर   बगैर,  न  त्यौहार  तो   फ़ीके  लगते |
काश ! खाया  न कभी, मीठा निवाला  होता ||

गुड   कहाँ,  दूध  कहाँ, आंटा   कहाँ  से  लायें |
इससे बेहतर था, कोई  ख़्वाब न पाला होता ||

तंगदस्ती से  'अरुन ' , तंग  रहे होंगे  ज़रूर |
वर्ना दरवाज़े से, क्या दोस्त को टाला होता || 
                                 *