( टिप्पणी : यह भावानुवाद , पवित्र श्रृंगवेर पुर घाट , जनपद प्रयाग की सीढ़ियों पर जुलाई 1995 में हुआ था। इस गंगाष्टक में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने गंगा को लेकर बड़ी ही मनोहारी, लालित्यपूर्ण एवं भावमयी कल्पनायें की हैं, जिनका कृतज्ञतापूर्वक अनुवाद कर पुण्यलाभ लेते हुये धन्य होने के लोभ का संवरण मेरा कवि-मन न कर सका। मैं इसके लिये उन अनाम पंडित जी का भी कृतज्ञ हूँ , जिन्हें गंगास्नान करते हुये इसका पाठ करते सुन कर,मेरे मन में इस भावानुवाद की प्रेरणा जाग्रत हुई | )
अथ श्री गंगाष्टक भावानुवाद
- अरुण मिश्र
माता शैलपुत्री की सहज सपत्नी तुम,
धरती का कंठहार बन कर सुशोभित हो।
स्वर्ग-मार्ग की हो तुम ध्वज-वैजयन्ती मॉ-
भागीरथी ! बस तुमसे इतनी है प्रार्थना-
बसते हुये तेरे तीर, पीते हुये तेरा नीर,
होते तरंगित गंग , तेरे तरंगों संग।
जपते तव नाम, किये तुझ पर समर्पित दृष्टि,
व्यय होवे मॉं ! मेरे नश्वर शरीर का।।
मत्त गजराजों के घंटा - रव से सभीत -
शत्रु - वनिताओं से वन्दित भूपतियों से -
श्रेष्ठ , तव तीर-तरु-कोटर-विहंग , गंग ;
तव नर्क-नाशी-नीर-वासी , मछली-कछुआ ||
कंकण स्वर युक्त, व्यजन झलती बालाओं से -
शोभित भूपाल अन्यत्र का , न अच्छा है |
सहूँ जन्म-मरण-क्लेश, रहूँ तेरे आर-पार ,
भले गज, अश्व, वृषभ, पक्षी या सर्प बनूँ ||
नोचें भले काक - गीध , खाएं भले श्वान-वृन्द ,
देव - बालाएं भले , चामर झलें नहीं |
धारा-चलित, तटजल-शिथिल, लहरों से आन्दोलित,
भागीरथि ! देखूँगा कब अपना मृत शरीर।।
हरि के चरण कमलों की नूतन मृणाल सी है;
माला, मालती की है मन्मथ के भाल पर।
जय हो हे ! विजय-पताका मोक्ष-लक्ष्मी की;
कलि-कलंक-नाशिनि, जाह्नवी ! कर पवित्र हमें।।
साल, सरल, तरु-तमाल, वल्लरी-लताच्छादित,
सूर्यताप-रहित, शंख, कुन्द, इन्दु सम उज्ज्वल।
देव - गंधर्व - सिद्ध - किन्नर - वधू - स्पर्शित,
स्नान हेतु मेरे नित्य, निर्मल गंगा-जल हो।।
चरणों से मुरारी के, निःसृत है मनोहारी,
गंगा - वारि , शोभित है शीश त्रिपुरारी के।
ऐसी पापहारी मॉ - गंगा का , पुनीत जल,
तारे मुझे और मेरा तन - मन पवित्र करे।।
करती विदीर्ण गिरिराज - कंदराओं को ,
बहती शिलाखंडों पर अविरल गति से है जो;
पाप हरे , सारे कुकर्मों का नाश करे ,
ऐसी तरंगमयी धारा , माँ - गंगा की ||
कल-कल रव करते, हरि- पद-रज धोते हुए ,
सतत शुभकारी, गंग-वारि कर पवित्र मुझे ||
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वाल्मीकि - विरचित यह शुभप्रद जो नर नित्य-
गंगाष्टक पढ़ता है ध्यान धर प्रभात में |
कलि-कलुष-रूपी पंक , धो कर निज गात्र की ,
पाता है मोक्ष ; नहीं गिरता भव - सागर में ||
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" इति श्री वाल्मीकि -विरचित गंगाष्टक का भावानुवाद संपूर्ण |"