व्याध-बाण-आहत जिनके उर...
- अरुण मिश्र
कवि-मन, कुल की रीति न छोड़ो |
ललित कल्पनाओं की समिधा,
लाओ नव - विचार की चूनी |
अंतर्मन की चिंगारी से ,
सुलगाओ कविता की धूनी ||
हर्ष - शोक में , धूप - छांव में,
सम रहने की नीति न छोड़ो ||
सारा कल्मष जल जाये तो ,
तप कर निखरेगा मन-कंचन |
काव्य -यज्ञ के महा -ज्वाल में ,
होम करो जड़ता के बंधन ||
इस हवि से ही जग ज्योतिर्मय,
तुम यह सहज प्रतीति न छोड़ो ||
संग धुएं के ऊर्ध्वमुखी हों ,
गहन वेदनाएं सब तेरी |
करुणा के वाष्पित - बादल लें ,
आर्तजनों के घर - घर फेरी ||
व्याध - बाण - आहत जिनके उर ,
उनसे अपनी प्रीति न छोड़ो ||
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कविता बहुत अच्छी लगी धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद श्रीयुत के.आर.जोशी(पाटली)जी|
जवाब देंहटाएं- अरुण मिश्र.