रविवार, 3 अक्टूबर 2010

कभी बरसों-बरस न हो सका, तय हाथ भर का भी फ़ासला

गजल़

- अरुण मिश्र

कभी ख़त्म होगा  नहीं ‘अरुन’, ये दिलों का अपने मुआमला। 
चाहे  हॉ कहो, चाहे  ना कहो, या  कहो बुरा, या   कहो  भला।।  

कभी   रीता-रीता,   भरा-भरा,   कभी   सूखा-सूखा, हरा-हरा। 
कई   रंग   देखें हैं बाग़ ने, कभी गुल खिला, कभी दिल जला।।   

कभी कोसों-कोस की  दूरियां भी, पलक झपकते  सिमट गईं। 
कभी  बरसों-बरस  न हो सका, तय हाथ भर का भी फ़ासला।।

                                               *

2 टिप्‍पणियां:

  1. @ कभी ख़त्म होगा नहीं ‘अरुन’, ये दिलों का अपने मुआमला।
    चाहे हॉ कहो, चाहे ना कहो, या कहो बुरा, या कहो भला।।

    WAHH!! bahut badiya

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  2. प्रिय अमित जी, आप को शेर' पसंद आया, इसके लिए और सतत समर्थन के लिए ह्रदय से आभार|
    - अरुण मिश्र

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