सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

थी तलाश जिसकी, कँहा मिला?

ग़ज़ल

- अरुण मिश्र

किया ज़िन्दगी का  हिसाब तो, है 'अरुन' ये मुझ पे भरम खुला |
जो  गवां दिया  वो अमोल था ; थी तलाश जिसकी, कँहा मिला??

जो   गुज़ारे   दिन   तेरे  गाँव  में,  कभी  धूप में   कभी  छाँव  में |
कभी  नन्हीं  खुशियाँ  हँसा  गईं ,  कभी  ग़म गराँ  है गया  रुला ||

न   बहार   सारी   बहार  थी ,  न   खिज़ां  ही   सारी   खिज़ां   हुई |
कभी  दिल जले  हैं  बहार में,  कभी है  खिज़ां में भी  ग़ुल  खिला ||

जो है  सुब्हो-शाम  बिखेरता, यूँ   उफ़क़  पे,  अपने  शफ़क़ के  रंग |
नहीं तोड़ सकता वो शम्स भी , कभी रोज़ो-शब का  ये सिलसिला ||
                                             *
 

2 टिप्‍पणियां:

  1. न बहार सारी बहार थी , न खिज़ां ही सारी खिज़ां हुई |
    कभी दिल जले हैं बहार में, कभी है खिज़ां में भी ग़ुल खिला ||

    ADBHUT !!

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  2. अद्भुत टिप्पणी हेतु कृतज्ञ हूँ|सस्नेह -
    -अरुण मिश्र.

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