- अरुण मिश्र
किया ज़िन्दगी का हिसाब तो, है 'अरुन' ये मुझ पे भरम खुला |
जो गवां दिया वो अमोल था ; थी तलाश जिसकी, कँहा मिला??
जो गुज़ारे दिन तेरे गाँव में, कभी धूप में कभी छाँव में |
कभी नन्हीं खुशियाँ हँसा गईं , कभी ग़म गराँ है गया रुला ||
न बहार सारी बहार थी , न खिज़ां ही सारी खिज़ां हुई |
कभी दिल जले हैं बहार में, कभी है खिज़ां में भी ग़ुल खिला ||
जो है सुब्हो-शाम बिखेरता, यूँ उफ़क़ पे, अपने शफ़क़ के रंग |
नहीं तोड़ सकता वो शम्स भी , कभी रोज़ो-शब का ये सिलसिला ||
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न बहार सारी बहार थी , न खिज़ां ही सारी खिज़ां हुई |
जवाब देंहटाएंकभी दिल जले हैं बहार में, कभी है खिज़ां में भी ग़ुल खिला ||
ADBHUT !!
अद्भुत टिप्पणी हेतु कृतज्ञ हूँ|सस्नेह -
जवाब देंहटाएं-अरुण मिश्र.