ग़ज़ल
- अरुण मिश्र
मंदिरों में हों अज़ानें , मस्जिदों में घंटियां।
तब मैं मानूँगा कि सचमुच एक हैं अल्ला मियां।।
सोच का सदियों के , ना तोड़ा गया जो दायरा।
तो नहीं घट पायेंगी , बढ़ती हुई ये दूरियां।।
आज, जब दुनिया सिमट कर,गॉव इक होने को है।
तब ये कैसा बचपना, सबकी अलग हों बस्तियां??
जो न हों ऊँचा उठातीं आपके क़िरदार को।
हो नहीं सकतीं कभी ज़ायज़ हैं , वो पाबन्दियां।।
तुम, बनाने वाले की नज़रों से ग़र देखो ‘अरुन’।
ना तो वे ही म्लेच्छ हैं , ना ये ही हैं काफ़िर मियां।।
*
बहुत खूबसूरती से कही अपनी बात ...बधाई
जवाब देंहटाएंअभिमत एवं उत्साहवर्धन हेतु आभार,'गीत' जी |
जवाब देंहटाएं- अरुण मिश्र.