शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

अवधी आल्हा अल्हैत पं ओम प्रकाश पाण्डेय

https://youtu.be/nPG6zCG9Wjg

आल्हा लोकगाथा वर्षा ऋतु में विशेष रूप से गाई जाती है।
आल्हखण्ड जनसमूह की निधि है।

जगनिक कालिंजर के चन्देल राजा परमार्दिदेव (परमाल ११६५-१२०३ई.) के 
आश्रयी कवि (भाट) थे। इन्होने परमाल के सामंत और सहायक महोबा के 
आल्हा-ऊदल को नायक मानकर आल्हखण्ड नामक ग्रंथ की रचना की जिसे 
लोक में 'आल्हा' नाम से प्रसिध्दि मिली। इसे जनता ने इतना अपनाया और 
उत्तर भारत में इसका इतना प्रचार हुआ कि धीरे-धीरे मूल काव्य संभवत: 
लुप्त हो गया। विभिन्न बोलियों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप मिलते हैं। 
अनुमान है कि मूलग्रंथ बहुत बड़ा रहा होगा। १८६५ ई. में फर्रूखाबाद 
के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने 'आल्ह खण्ड' नाम से इसका संग्रह कराया 
जिसमें कन्नौजी भाषा की बहुलता है। इलियट के अनुरोध पर डब्ल्यू० वाटरफील्ड 
ने उनके द्वारा संग्रहीत आल्हखण्ड का अंग्रेजी अनुवाद किया था, जिसका सम्पादन 
ग्रियर्सन ने १९२३ ई० में किया। वाटरफील्डकृत अनुवाद "दि नाइन लाख चेन" अथवा 
"दि मेरी फ्यूड" के नाम से कलकत्ता-रिव्यू में सन १८७५-७६ ई० में प्रकाशित हुआ था।

इस रचना के आल्हखण्ड नाम से ऐसा आभास होता है कि आल्हा सम्बंधित ये वीरगीत 
जगनिककृत उस बड़े काव्य के एक खण्ड के अन्तर्गत थे जो चन्देलों की वीरता के वर्णन 
में लिखा गया था।आल्ह खण्ड जन समूह की निधि है। रचना काल से लेकर आज तक 
इसने भारतीयों के हृदय में साहस और त्याग का मंत्र फूँका है।आल्हखण्ड की जगनिक 
द्वारा लिखी गई कोई भी प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। अभी इसकी संकलित की 
गई प्रति ही उपलब्ध है जिसका संकलन विभिन्न विद्वानों ने अनेक क्षेत्रों में गाये जाने वाले 
आल्हा गीतों के आधार पर किया है। इसलिए इसके विभिन्न संकलनों में पाठांतर मिलता 
है और कोई  भी प्रति पूर्णतः प्रमाणिक नहीं मानी गई है। इस काव्य का प्रचार-प्रसार समस्त 
उत्तर भारत में है। उसके आधार पर प्रचलित गाथा हिन्दी भाषा भाषी प्रान्तों के गाँव-गाँव में 
सुनी जा सकती है।
साहित्य के रूप में न रहने पर भी जनता के कण्ठ में जगनिक के संगीत की वीर दर्पपूर्ण 
ध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इतने लम्बे अन्तराल में देश और 
काल के अनुसार आल्हखण्ड के कथानक और भाषा में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है। 
आल्हा में अब तक अनेक नए हथियारों, देशों व जातियों के नाम भी सम्मिलित हो गए हैं 
जो जगनिक के समय अस्तित्त्व में ही नहीं थे। आल्हा में पुनरुक्ति की भरमार है। विभिन्न 
युद्धों में एक ही तरह के वर्णन मिलते हैं। अनेक स्थलों पर कथा में शैथिल्य और 
अत्युक्तिपूर्ण वर्णनों की अधिकता है।आल्हखण्ड पृथ्वीराज रासो के महोबा-खण्ड की कथा 
से समानता रखते हुए भी एक स्वतंत्र रचना है। मौखिक परंपरा के कारण इसमें दोषों तथा 
परिवर्तनों का समावेश हो गया है। आल्हखण्ड में वीरत्व की मनोरम गाथा है जिसमें उत्साह 
और गौरव की मर्यादा सुन्दर रूप से निबाही गई है। इसने जनता की सुप्त भावनाओं को 
सदैव गौरव के गर्व से सजीव रखा है।

(श्रोत : विकिपीडिआ )

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