https://youtu.be/E2zMRO4H3wE
कवि : मीर अली मीर
गायक : मनोज वर्मा एवं महादेव हिरवानी
फिल्म : भूलन द मेज़ (राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त छत्तीसगढ़ी फिल्म)
मीर अली मीर के नाम से पहचाने जाने वाले सैयद अय्यूब अली मीर 2019 में
छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण सम्मान मिल चुका है। मीर साहब की कई किताबें
और काव्य संग्रह प्रकाशित हैं। इन्हें पंडित सुंदरलाल शर्मा सम्मान से भी नवाजा
जा चुका है। कबीर धाम , कबर्धा में जन्म मीर साहब अरुण चौंरा नाम की पत्रिका
ए उड़ा जही का रे
उड़ा जही का रे
उड़ा जही का
मनकैना चिरैया कलरा करईया
फुदुर फुदुर फ़ुद्कए
सोन चिरइया उड़ा जही का
ए नंदा जही का रे , नंदा जही का रे , नंदा जही का
कमरा अउ खुमरी अरई-तुतारी
अ र र र र त त त छो…… x २
होत बिहनिया पखरा के आगी
टेड़गा हे चोंगी टेड़गा हे पागी
नुई झूले जस गरकस माला
धरे कसेली दउड़त हे ग्वाला
टेड़गा लेउड़ी ल बांखा दबाए
बंसी म धेनु चरइया नन्दा जही का..
ए नंदा जही का रे, नंदा जही का रे
नंदा जही का
कमरा अउ खुमरी अरई-तुतारी
अ र र र र त त त छो…….
रचरच मचमच गेंड़ी मचईया
गांव गली म पँड़की नचईया
मांदर के थाप म राहस रचाये
पंथी के धुन ल गाए बजाए
गांव के लीला, चाऊंर के चीला
मेला मड़ई म ढेलवा झुलईया
नन्दा जही का…
ए नंदा जही का रे, नन्दा जही का रे
नन्दा जही का
कमरा अउ खुमरी, अरई-तुतारी
अ र र र र त त त छो…….
जिमिकान्दा, कनसईया उसनागे
लेड़गा बरी के बनईया नंदागे
दार के पीठी, अदौरी बरी ल
चेंच भाजी संग धरे जोड़ी ल
मही बिलोये, पठोये, मंगाए
डुबकी कढ़ी के रंधईया
नंदा जही का…
ए नंदा जही का रे , नंदा जही का रे
नंदा जही का
कमरा अउ खुमरी, अरई-तुतारी
अ र र र र त त त छो…….
टेंड़ा बारी के टेंड़ा टेंड़ईया
घेंच म घांटी घुंघरू बंधईया
गोल्लर दउड़ै खावै अघावै
हरहा मरहा ल कोनो नई भावै
का मेड़वारी के घानी मुंदी म
गाए ददरिया दौरी खेदईया
नंदा जही का….
ए नंदा जही का रे, नंदा जही का रे
नंदा जही का
कमरा अउ खुमरी, अरई-तुतारी
अ र र र र त त त छो…….
इस कविता के माध्यम से मीर अली मीर साहब छत्तीसगढ़ की पुरानी संस्कृति एवं परम्परा के विलुप्त हो जाने का संशय व्यक्त कर रहे हैं।
क्या आकाश में उड़ने वाली, फुदक फुदक कर कलरव करने वाली चिड़िया विलुप्त हो जाएँगी ?
क्या ये चीज़ें विलुप्त हो जाएँगी ? जो सुबह सुबह किसान कमरा(कम्बल) और खुमरी (एक प्रकार की बड़ी घास-फूस और बांस की टोपी) पहन कर खेत जाते थे । अरई-तुतारी(हल जोतने समय बैल को कोंचने के लिए एक हल्की नुकीली छड़ी )। अ र र र त त त छो(बैल को हांकने की आवाज़ )…….
कि सुबह होते ही चकमक पत्थर से टेढ़ी चोंगी (एक प्रकार का सिगार) जलाये जाथे थे। (नुई) छोटे बछड़े को बांधी जाने वाली रस्सी को माला की तरह गले में डाल कर, पतीले को हाथ में ले कर, ग्वाले एक घर से दूसरे घर गाय दूहने के लिए जाते थे। टेढ़ी मेढ़ी लकड़ी को काँख में दबा कर बंसी के धुन में ग्वाले गाय चराते थे ।क्या ये सब विलुप्त हो जाएँगे?
पहले गाँव गाँव में लोग गेंड़ी नाच एवं पंड़की नाच करने हेतु आया करते थे। उसी तरह मांदर (एक तालवाद्य) के धुन में रास लीला एवं पंथी नाच भी हुआ करते थे ।क्या गाँव में होने वाली लीलाएँ , मेले में आने वाले ढेलवा(गोल झूले) , घर में बनने वाले चावल के आटे के चिले विलुप्त हो जाएँगे?
हर घर में जिमिकन्द और कनसैया(अरबी के पौधे का तना) को उबाल कर उसकी सब्ज़ी बनती थी। उसी तरह उड़द डाल की छोटी-छोटी बड़ियों को चेंच भाजी के साथ पकाया जाता था। गाँव में जब किसी एक के घर में दही मथी जाती थी तो हर घर में उस बाँटा करते थे ।एवं उसी से डुबकी कढ़ी बनाई जाती थी। क्या ये सब विलुप्त हो जाएँगे?
खेतों में सिंचाई के लिए टेंड़ा प्रणाली की व्यवस्था की जाती थी जिसमें एक कुँए से टिन के डिब्बे में पानी भर के उसे खींच कर खेत में सींचा करते थे । गले में घंटी बँधाए,छोटे छोटे बैल मस्त खा पी कर काम करते और आलसी एवं बदमाश बैलों को कोई नहीं भाया करते। क्या खेतों के मेड़ में घानी मुँदी (गोल गोल घूम कर खेले जाने वाला खेल ) खेलने वाले , ददरिया(छत्तीसगढ़ी लोक गीत) गाने वाले, बैल की सहायता से धान मिसने वाले किसान विलुप्त हो जाएँगे?
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