https://youtu.be/BlzWWQ__yo8
भागवत जी का वो श्लोक, जिसे सुनकर श्री शुकदेव जी की समाधि टूट गई थी
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्। रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै- र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।। २।।]
अर्थ भगवान परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र नटवर वपु को धारण किये, बर्हमय आपीड को धारण किये, वैजन्ती माला को पहने, कानों में कर्णिकार धारण किए, पीताम्बरधर वैजयन्ती माला को पहने, अधर सुधा से वेणु को परिपूरित करते हुए, गोपवृन्दों के संग विलसित होते हुए श्रीमद् वृन्दावन धाम में पधारे।।
बर्ह - मोर पंख / आपीड़ - मुकुट / वपु - वेष / कर्णिकार - कनेर पुष्प
श्लोक का भाव
श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं, उन्होंने मस्तक पर मोर-पंख धारण किया हुआ है, कानों पर पीले-पीले कनेर के पुष्प, शरीर पर सुन्दर मनोहारी पीताम्बर शोभायमान हो रहा है तथा गले में सुन्दर सुगन्धित पुष्पों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं। रंगमंच पर अभिनय करनेवाले नटों से भी सुन्दर और मोहक वेष धारण किये हैं श्यामसुन्दर बांसुरी को अपने अधरों पर रख कर उसमें अधरामृत फ़ूंक रहे हैं ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे लोकपावन करनेवाली कीर्ति का गायन करते हुए चल रहे हैं, और वृन्दावन आज श्यामसुन्दर के चरणों के कारण वैकुण्ठ से भी अधिक सुन्दर और पावन हो गया है।
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