गुरुवार, 21 जुलाई 2022

चन्दन-चर्चित-नील-कलेवर.../ गीतगोविन्द / महाकवि जयदेव कृत अष्टपदी / गायन : सौजन्या मदाभूषी

https://youtu.be/KQzIzddCU9I 

चन्दन-चर्चित-नील-कलेवर पीतवसन-वनमाली 
केलिचलन्मणि-कुण्डल-मण्डित-गण्डयुग-स्मितशाली

हरिरिह-मुग्ध-वधूनिकरे
विलासिनि विलसति केलिपरे ॥१॥ ध्रुवम्र॥

अन्वय - अयि विलासिनि (विलासवति) केलि-चलन्मणि- कुण्डल-मण्डित-गण्डयुग-स्मितशाली (केलिना क्रीड़ारसेन चलन्ती ये मणिकुण्डले रत्नमय-कर्णभूषणे ताभ्यां मण्डितं शोभितं गण्डयुगं कपोलयुगलं यस्य स:; तथा स्मितेन मृदुहासेन शालते शोभते इति स्मितशाली, स चासौ स चेति तथा) चन्दन-चर्चित-नीलकलेवर-पीतवसन-वनमाली (चन्दनै: चर्चितम् अनुलिप्तं नीलं कलेवरं यस्य स:; तथा पीत वसनं यस्य तथोक्त:; तथा वनमाली वनकुसुम-मालाधर:; स चासौ स चासौ स चासौ स चेति तथा) हरि: इह (अस्मिन्) केलिपरे (क्रीड़ासक्ते) मुग्धवधूनिकरे (सुन्दरी-समूहे) विलसति (विहरति) [अहो श्रीकृष्णस्य अकृत-वेदित्वम्! त्वद्दत्त-चन्दन-वनमाला-भूषित स्त्वद्रवर्णवसनावृतांयष्टिरेव विलसतीत्यवलोकय] ॥१॥

अनुवाद - हे विलासिनी श्रीराधे! देखो! पीतवसन धारण किये हुए, अपने तमाल-श्यामल-अंगो में चन्दन का विलेपन करते हुए, केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिन में मुग्ध वधुटियों के साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण दोनों कानों में कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, उनके कपोलद्वय की शोभा अति अद्भुत है। मधुमय हासविलास के द्वारा मुखमण्डल अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ॥१॥

कापि विलास-विलोल-विलोचन-खेलन-जनित-मनोजं।
ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदन-वदन-सरोजम्
हरिरिह-मुग्ध-वधूनिकरे... ॥३॥

अन्वय - सखि, कापि मुग्धवधू: (नवीना रमणी) विलास-विलोल-विलोचन-खेलन-जनित-मनोजम् (विलासेन विलोलयो: चटुलयो: विलोचनयो: नयनयो: खेलनेन चालनभ या कटाक्षपातेनेत्यर्थ: जनित: मनोज: काम: यत्र तत् यथास्यात् तथा) मधुसूदन-वदन-सरोजम् (श्रीहरिमुख-पंकजम्) अधिकं (अतिमात्रं) ध्यायति (चिन्तयति निरीक्षते भ्रमरवत् रसविशेषान्वेषणपर इति श्लिष्ट-मधुसूदन-पदोपन्यास:) [अन्यत्र पूर्ववत्र] ॥३॥

अनुवाद - देखो सखि! श्रीकृष्ण जिस प्रकार निज अभिराम मुखमण्डलकी श्रृंगार रस भरी चंचल नेत्रों की कुटिल दृष्टि से कामिनियों के चित्त में मदन विकार करते हैं, उसी प्रकार यह एक वरांगना भी उस वदनकमल में अश्लिष्ट (संसक्त) मकरन्द पान की अभिलाषा से लालसान्वित होकर उन श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही है॥३

श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि रमयति कामपि रामां।

पश्यति सस्मित-चारुतरामपरामनुगच्छति वामां
हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥७॥

अन्वय - सखि, [हरि:] कामपि (तरुणीं) श्लिष्यति (आलिंगति),; कामपि चुम्बति; कामपि रामां रमयति (क्रीड़ाकौतुकेन सुखयति); सस्मित-चारुतराम् (सस्मिता अतएव चारुतरा ताम् मृदुमधुर-हासेन अतिमनोहरामित्यर्थ:) [कामपि] पश्यति; [तथा] अपरां वामाम्र (प्रतिकूलाम्, प्रणयकोपवशात् अभिमानभरेण स्थानान्तर-गामिनीम्) अनुगच्छति ॥७॥

अनुवाद- श्रृंगार-रस की लालसा में श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणी का आलिंगन करते हैं, किसी का चुम्बन करते हैं, किसी के साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधा का अवलोकन कर किसी को निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनी के पीछे-पीछे चल रहे हैं ॥७

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