बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

दीवाली पर विशेष

 
 lighting the diya

चाँद का मुँह तो अमावस को न काला होता...

 - अरुण  मिश्र


ग़र  दिवाली  का नतीजा न  दिवाला    होता |  
चाँद का मुँह तो अमावस को न काला होता ||

तेल - बाती  के  बिना  सारे  दिए   हैं   बेचैन |
रौशनी कैसे हो,  कुछ जलने तो वाला  होता ||

शकर   बगैर,  न  त्यौहार  तो   फ़ीके  लगते |
काश ! खाया  न कभी, मीठा निवाला  होता ||

गुड   कहाँ,  दूध  कहाँ, आंटा   कहाँ  से  लायें |
इससे बेहतर था, कोई  ख़्वाब न पाला होता ||

तंगदस्ती से  'अरुन ' , तंग  रहे होंगे  ज़रूर |
वर्ना दरवाज़े से, क्या दोस्त को टाला होता || 
                                 *




शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

आदि कवि वाल्मीकि जयंती पर विशेष


















व्याध-बाण-आहत जिनके उर...

- अरुण मिश्र



कवि-मन, कुल की रीति न छोड़ो |


                      ललित कल्पनाओं की समिधा,
                      लाओ   नव  - विचार  की चूनी |
                      अंतर्मन      की     चिंगारी   से  ,
                      सुलगाओ   कविता  की   धूनी ||


हर्ष  - शोक    में ,   धूप - छांव   में,
सम   रहने  की   नीति   न  छोड़ो || 


                        सारा  कल्मष   जल   जाये  तो ,
                        तप  कर  निखरेगा  मन-कंचन |
                        काव्य -यज्ञ के  महा -ज्वाल  में ,
                        होम   करो   जड़ता   के   बंधन ||


इस  हवि  से  ही  जग  ज्योतिर्मय, 
तुम  यह  सहज  प्रतीति  न  छोड़ो ||


                          संग   धुएं   के   ऊर्ध्वमुखी   हों ,
                          गहन     वेदनाएं    सब     तेरी  | 
                          करुणा के  वाष्पित - बादल लें ,
                          आर्तजनों   के   घर - घर  फेरी || 

व्याध - बाण - आहत   जिनके  उर ,
उनसे   अपनी   प्रीति     न    छोड़ो ||

                                        *
 

                                    


                     

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

विजय-दशमी पर विशेष







जय  रामचन्द्र...












   












 
दशरथ-हृत्व्योम-बिहारी हे!
 
  - अरुण मिश्र
 
 जय  राम,  राम,  जय  रामचन्द्र।
 शोषित- जन- मन-विश्राम,चन्द्र।
 दशरथ -  हृत्व्योम - बिहारी    हे!
    रघुकुल  के  चिर-अभिराम चन्द्र।।

               शुचि, जीवन-मूल्यों के  मापक।
               हे पूर्ण-पुरुष! अग-जग-व्यापक।
               यश-वाहक,   संस्कृति-संवाहक।   
               मर्यादाओं       के       संस्थापक।।

    हे!   दीन - हीन   के   मन  के   बल।
    मुनि-हृदय-मीन, तव-भक्ति सुजल।
    हे!    चिर-नवीन- शुभ-आस-रश्मि।
    हे!  आर्त - दुखी- जन    के    संबल।।

               भारत-भुवि  के   गौरव   ललाम।
               हे! संत- सरल- चित- परमधाम।
               निष्काम !  करो  लीला- सकाम।
               हे!  राम,  राम,   जय   राम-राम।।
                                         *

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

विजय दशमी की प्रतीक्षा में

                                                                              
 



 राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है |      
 कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है || 
                                          - मैथिली शरण गुप्ता 
  





लहरों में सरजू के है तेरी अदा...

- अरुण मिश्र 


कहते  हैं  जब मिलते  या  होते जुदा ,  'जय राम जी' |
सदियों से   भारत में   गूंजे  है   सदा ,  'जय राम जी' ||

सद्गुणों   की   खान ,  धीर ,  सुजान ,  वीर ,  महान हैं |
शत्रु   भी  श्री राम  के  गुन  पे  फ़िदा ;  'जय राम जी' ||

बाल - लीला  से   तेरे,   गलियां   अवध  की   झूमतीं |
लहरों   में   सरजू   के  है,  तेरी  अदा ;  'जय राम जी'||

पितुवचन हित राज तज अति सहज ही वन को चले |
रोती  है  हर  आँख,  यूँ   करते  विदा ;  'जय राम जी' ||

सीस  दस ,  भुज  बीस  काटे,  भूमि  दसकंधर  गिरा |
जय  कहें   हनुमंत,  कर  ऊँची  गदा ;  'जय राम जी' ||

राम  का  ही  नाम  ले ,  करता  'अरुन'  हर  काम  हूँ |
राम  जानें    भाग्य  में,  जो  हो  बदा ,  'जय राम जी' ||
                                   *

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

ग़ज़ल

तो ये पत्थर हैं ख़दानों में मिला करते हैं


- अरुण मिश्र  


दश्त-ओ-सह्रा   में  भी  चुपचाप  खिला करते हैं |
ग़ुल कहाँ , किस के तगाफुल  का गिला करते हैं??

हज़ार  साल    भी    नर्गिस   कहाँ   मायूस   हुई |
दीदावर, हुस्न  को   तय  है  कि, मिला करते हैं ||

कोई समझे न ग़र,  इन हीरों की असली कीमत|
तो   ये  पत्थर  हैं,  ख़दानों  में   मिला  करते  हैं ||  
                                    *


शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

शुभ नवरात्रि

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हे ! अष्टभुजी  मैय्या...

- अरुन मिश्र 

गंगा   के   तीर   एक   ऊँची   पहाड़ी   पर ,
          अष्टभुजी  माँ   की   पताका  लहराती  है |
विन्ध्य-क्षेत्र का है, माँ  सिद्ध-पीठ तेरा  घर ,
          आ के यहाँ भक्तों को सिद्धि मिल जाती है |
जर्जर,   भव-सागर के  ज्वार के  थपेड़ो से ,
          जीवन के  तरनी को  पार  तू  लगाती है |
जो है  बड़भागी,  वही  आता है  शरण तेरे ,
          तेरे चरण  छू कर ही, गंग, बंग जाती है ||
     *                *                *             *
आठ भुजा वाली, हे! अष्टभुजी मैय्या, निज-
          बालक की विनती को करना स्वीकार माँ |
जननी जगत की तुम, पालतीं जगत सारा ,
          तेरी  शरण  आ  के, जग  पाए उद्धार माँ | 
तुम ने  सुनी है सदा  सब की पुकार , आज-
          कैसे  सुनोगी   नहीं    मेरी   पुकार   माँ |
दुष्ट -दल -दलन  हेतु , काफ़ी  है  एक भुजा ,
          शेष सात हाथन ते , भक्तन को  तार माँ ||
                               *  
टिप्पणी :  वर्ष १९९५ में इन  छंदों की रचना माँ  अष्टभुजी देवी, (विन्ध्याचल,उ.प्र.) के चरणों में हुई थी |

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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

सहधर्मिणी को जन्म-दिवस पर सस्नेह समर्पित...
































































टिप्पणी :   यह कविता मेरे काव्य-संग्रह  'अंजलि भर भाव के प्रसून' से साभार उद्धृत है|
              - अरुण मिश्र.

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

थी तलाश जिसकी, कँहा मिला?

ग़ज़ल

- अरुण मिश्र

किया ज़िन्दगी का  हिसाब तो, है 'अरुन' ये मुझ पे भरम खुला |
जो  गवां दिया  वो अमोल था ; थी तलाश जिसकी, कँहा मिला??

जो   गुज़ारे   दिन   तेरे  गाँव  में,  कभी  धूप में   कभी  छाँव  में |
कभी  नन्हीं  खुशियाँ  हँसा  गईं ,  कभी  ग़म गराँ  है गया  रुला ||

न   बहार   सारी   बहार  थी ,  न   खिज़ां  ही   सारी   खिज़ां   हुई |
कभी  दिल जले  हैं  बहार में,  कभी है  खिज़ां में भी  ग़ुल  खिला ||

जो है  सुब्हो-शाम  बिखेरता, यूँ   उफ़क़  पे,  अपने  शफ़क़ के  रंग |
नहीं तोड़ सकता वो शम्स भी , कभी रोज़ो-शब का  ये सिलसिला ||
                                             *
 

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

कभी बरसों-बरस न हो सका, तय हाथ भर का भी फ़ासला

गजल़

- अरुण मिश्र

कभी ख़त्म होगा  नहीं ‘अरुन’, ये दिलों का अपने मुआमला। 
चाहे  हॉ कहो, चाहे  ना कहो, या  कहो बुरा, या   कहो  भला।।  

कभी   रीता-रीता,   भरा-भरा,   कभी   सूखा-सूखा, हरा-हरा। 
कई   रंग   देखें हैं बाग़ ने, कभी गुल खिला, कभी दिल जला।।   

कभी कोसों-कोस की  दूरियां भी, पलक झपकते  सिमट गईं। 
कभी  बरसों-बरस  न हो सका, तय हाथ भर का भी फ़ासला।।

                                               *

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

गाँधी जयंती पर विशेष


बापू...

- अरुण मिश्र





हिन्दियों के   हृदय में,  बापू  बसे  प्यारे से हैं।
आसमाने-हिन्द  में, गॉधी जी  ध्रुव-तारे से हैं।। 

तोपें-तलवारें सदा, गल जायेंगी  इस  ऑच से।
सच-अहिंसा, शस्त्र  गॉधी जी के, अंगारे से हैं।। 

संगे-पारस हैं, कि  जो  छू ले उन्हें, सोना बने।
एक ही  क़िरदार  अपनी तरह के, न्यारे से हैं।। 

नूर से इस,हिन्द के, दुनिया हुई रोशन ‘अरुन’।
दूर  होगा  हर  कुहासा, गॉधी, उजियारे से हैं।।

                                     *

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

सोच का सदियों के , ना तोड़ा गया जो दायरा

ग़ज़ल 

- अरुण मिश्र 


मंदिरों   में    हों   अज़ानें ,  मस्जिदों  में   घंटियां। 
तब मैं मानूँगा  कि  सचमुच  एक हैं अल्ला मियां।।  

सोच  का  सदियों  के ,  ना  तोड़ा  गया  जो दायरा। 
तो   नहीं   घट   पायेंगी ,  बढ़ती    हुई   ये   दूरियां।। 

आज, जब  दुनिया सिमट कर,गॉव इक होने को है। 
तब  ये कैसा बचपना,  सबकी  अलग हों  बस्तियां??  

जो   न   हों    ऊँचा   उठातीं   आपके   क़िरदार  को।       
हो  नहीं  सकतीं   कभी   ज़ायज़ हैं , वो  पाबन्दियां।।    

तुम, बनाने वाले की  नज़रों से   ग़र देखो  ‘अरुन’। 
ना तो वे  ही म्लेच्छ हैं , ना ये  ही हैं काफ़िर मियां।।
                                                          *