यूँ हवाओं में, घुल गई होली। रंग बरसे तो, धुल गई होली। सारे आलम में, मस्तियाँ बिखरीं। इक पिटारी सी,खुल गई होली।। बेल-बूटों सी, है कढ़ी होली। फ्रेम में मन के, है मढ़ी होली। रंग का इक तिलिस्म है, हर-सू। सर पे जादू सी, है चढ़ी होली।। सीढ़ी दर सीढ़ी है, उतरी होली। आके अब लान में, पसरी होली। संग हवा के, गुलाल बन के उड़ी। रंग में भीगी तो, निखरी होली।। हाथ यूँ ही, हिला रही होली। खेल मुझको, खिला रही होली। कितनी मुश्क़िल से, पहुँचा आंगन तक। शायद छत पे, बुला रही होली।। देखो हौले से, आ रही होली। मेरे जी को, लुभा रही होली। उम्र तक को, धकेल कर पीछे। कानों में होली, गा रही, होली।। मीठी यादें, जगा रही होली। चैन मन का, भगा रही होली। रंग की बारिशों, न थम जाना। आग दिल में, लगा रही होली।। ख़ुश्क है ’औ कभी पुरनम होली। कभी शोला, कभी शबनम होली। रंग है, रस है, रूप है, कि महक। एक मौसम है, कि सरगम होली।। प्यासी आँखों का, ख़्वाब है होली। चप्पा- चप्पा, गुलाब है होली। लब पे आने से, झिझकता जो सवाल। उसका, मीठा जवाब है होली।। फूली सरसों, संवर रही होली। आम बौरे, निखर रही होली। कोयलें कूकीं, पपीहे पागल। रस के झरने सी झर रही होली।। यूँ मज़े में, शुमार है होली। ज़ोश , मस्ती, ख़ुमार, है होली। इस बरस, कैश जो किया सो किया। बाकी तुम पर, उधार है होली।।
आज बिरज में होरी रे रसिया
आज बिरज में होरी रे रसिया ।
होरी रे होरी रे बरजोरी रे रसिया ॥
अपने अपने घर से निकसी,
कोई श्यामल कोई गोरी रे रसिया ।
कौन गावं के कुंवर कन्हिया,
कौन गावं राधा गोरी रे रसिया ।
नन्द गावं के कुंवर कन्हिया,
बरसाने की राधा गोरी रे रसिया ।
कौन वरण के कुंवर कन्हिया,
कौन वरण राधा गोरी रे रसिया ।
श्याम वरण के कुंवर कन्हिया प्यारे,
गौर वरण राधा गोरी रे रसिया ।
इत ते आए कुंवर कन्हिया,
उत ते राधा गोरी रे रसिया ।
कौन के हाथ कनक पिचकारी,
कौन के हाथ कमोरी रे रसिया ।
कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी,
राधा के हाथ कमोरी रे रसिया ।
उडत गुलाल लाल भए बादल,
मारत भर भर झोरी रे रसिया ।
अबीर गुलाल के बादल छाए,
धूम मचाई रे सब मिल सखिया ।
चन्द्र सखी भज बाल कृष्ण छवि,
चिर जीवो यह जोड़ी रे रसिया ।
आज बिरज में होरी रे रसिया ।
होरी रे होरी रे बरजोरी रे रसिया ॥
शोभा गुर्टू
कर्नाटक में जन्मीं शोभा गुर्टू भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्ध गायिका थीं। उन्हें ठुमरी की रानी कहा जाता था। उनका मूल नाम भानुमति शिरोडकर था। शोभा गुर्टू ने ऐसे समय में ख्याति प्राप्त की, जब महिलाओं का घरों से निकलना भी मुश्किल था। उन्हें गायन की शुरुआती शिक्षा अपनी मां से मिली। उनकी मां मेनेकाबाई शिरोडकर एक नृत्यांगना थीं। शोभा की मां जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया खां से गायफकी सीखती थीं।
प्रारंभिक जीवन :
कहते हैं जिसको सीखने की ललक होती है, उसमें उसका हुनर बचपन से ही दिखने लगता है। शोभा गुर्टू ने बचपन से ही गायन सीखना शुरू कर दिया था। उनका विवाह विश्वनाथ गुर्टू से हुआ था। विश्वनाथ के पिता पंडित नारायणनाथ गुर्टू वरिष्ठ पुलिस अधिकारी थे, पर संगीत के विद्वान और सितारवादक भी थे।
करिअर :
संगीत के क्षेत्र में शोभा की विधिवत शुरुआत उस्ताद भुर्जी खां के साथ हुई। भुर्जी खां अल्लादिया खां के छोटे बेटे थे। वे जयपुर-अतरौली घराने के संस्थापक थे। जब शोभा की मां को उस्ताद घाममन खां ठुमरी, दादरा और अन्य शास्त्रीय शैलियां सिखाने आया करते थे तब शोभा भी उनसे सीखतीं थीं। उस्ताद घाममन खां मुंबई में शोभा के घर पर ही रहने लगे थे। वहीं रह कर वे उन्हें संगीत की शिक्षा दिया करते थे।
ठुमरी की मल्लिका :
शोभा गुर्टू को ठुमरी की रानी कहा जाता है। वे केवल गले से नहीं, आंखों से भी गाती थीं। वे ठुमरी के अलावा दादरा, कजरी, होरी आदि में भी निपुण थीं। वे बेगम अख्तर और उस्ताद बड़े गुलाम अली से अधिक प्रभावित थीं। शुद्ध शास्त्रीय संगीत में शोभा की अच्छी पकड़ थी। उनके गायन की वजह से उन्हें देश-विदेश में ख्याति प्राप्त हुई। अपने मनमोहक ठुमरी गायन के लिए वे ‘ठुमरी क्वीन’ कहलार्इं।
सिनेमा में भी गूंजी आवाज :
उन्होंने कई मराठी और हिंदी सिनेमा के लिए भी गीत गाए। उन्हें 1972 में आई कमाल अमरोही की पाकीजा में पहली बार पार्श्वगायन का मौका मिला था। इसमें उन्होंने एक गीत ‘बंधन बांधो’ गाया था। इसके बाद 1973 में आई ‘फागुन’ में ‘मोरे सैंया बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ’ गीत गाया। यह गीत आज भी लोगों की जुबान पर है। 1978 में आई ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ में उन्होंने ‘सैंया रूठ गए’ गीत गाया। इस गीत के लिए उन्हें सर्वेश्रेष्ठ पार्श्वगायक का पुरस्कार मिला। इसके अलावा मराठी सिनेमा में उन्होंने सामना और लाल माटी के लिए गाया। 1979 में उनका एक एलबम आया। उसके बाद मेहदी हसन के साथ आया उनका एलबम ‘तर्ज’ भी लोगों को खूब पसंद आया। उन्होंने पचासवें गणतंत्र दिवस पर जन गण मन का गायन भी किया था। उन्होंने अपने कई कार्यक्रम पंडित बिरजू महाराज के साथ प्रस्तुत किए थे, जिनमें विशेष रूप से उनके गायन के ‘अभिनय’ अंग का प्रयोग किया जाता था।
पुरस्कार :
उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। फिल्म ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ की ठुमरी के लिए उन्हें फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। 1978 में संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, 2002 में पद्मभूषण और महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार, लता मंगेशकर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
निधन :
होली खेलत नन्द लाल बिरज में होली खेलत नंदलाल ग्वाल बाल संग रास रचाए ग्वाल बाल संग रास रचाए नटखट नंदगोपाल बिरज में होली खेलत नंदलाल बिरज में होली खेलत नंदलाल
बाजत ढोलक झांझ मंजीरा बाजत ढोलक झांझ मंजीरा गावत सब मिल आज कबीरा नाचत दे दे ताल होली खेलत नन्द लाल बिरज में होली खेलत नंदलाल
भर भर मारे रंग पिचकारी भर भर मारे रंग पिचकारी रंग गए ब्रिज के नर नारी रंग गए ब्रिज के नर नारी उड़त अबीर गुलाल होली खेलत नन्द लाल बिरज में होली खेलत नंदलाल
ऐसी होरी खेली कन्हाई ऐसी होरी खेली कन्हाई जमुना तट पर धूम मचाई जमुना तट पर धूम मचाई रास रचें नंदलाल
होली खेलत नन्द लाल होली खेलत नन्द लाल होली खेलत नन्द लाल होली खेलत नन्द लाल होली खेलत नन्द लाल.
'फूलदेई'प्रकृति को आभार प्रकट करने वाला लोकपर्व है। चैत के महीने की
संक्रांति (मीन संक्रांति) को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों
के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर
ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया
जाता है। ये त्योहार आमतौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है।
सर्दी और गर्मी के बीच का खूबसूरत मौसम, फ्यूंली, बुरांश और बासिंग के पीले,
लाल, सफेद फूल और बच्चों के खिले हुए चेहरे... 'फूलदेई' से यही तस्वीरें सबसे
पहले ज़ेहन में आती हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों का लोक पर्व है फूलदेई। नए साल
का, नई ऋतुओं का, नए फूलों के आने का संदेश लाने वाला है ये त्योहार।
फूलदेई के दिन लड़कियां और बच्चे सुबह-सुबह उठकर स्नान करके पास के जंगल
जाकर ताजे-ताजे फूल तोड़कर लाते हैं, जिनमें बुरांश, फ्यूंली, बासिंग, भिटौर और
कचनार आदि के सुन्दर पुष्प होते हैं। इन्हें बच्चे रिंगाल की छोटी टोकरियों में सजाते
हैं और फिर नए कपड़े धारण कर घर-घर जाते हैं और लोगों के घरों की देहरी पर फूल
बिखेरते हुए यह कहते हैं :
' फूलदेई, फूलदेई, छम्मा देई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार, यो देई सौं,
टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और
मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं। इन फूलों और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी
मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं।
गीत : फुलारी
रचना : नरेंद्र सिंह नेगी
स्वर : कवीन्द्र सिंह नेगी, अंजलि खरे, अनामिका वशिष्ठ, सुनिधि वशिष्ठ
अतिरिक्त अंतराएँ : डॉ. डी. आर. पुरोहित, प्रेम मोहन डोभाल
संगीत : ईशान डोभाल
फुलारी गीत
चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि फ्योंली लयड़ी
मैं घौर छोड्यावा
हे जी घर बौण बौड़ीगे ह्वोलु बालू बसंत
मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां
म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लायाँ
ना उनु धरम्यालु आगास
ना उनि मयालू यखै धरती
अजाण औंखा छिन पैंडा
मनखी अणमील चौतर्फी
छि भै ये निरभै परदेस मा तुम रौणा त रा
मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि
फुल फुलदेई दाल चौंल दे
घोघा देवा फ्योंल्या फूल
घोघा फूलदेई की डोली सजली
गुड़ परसाद दै दूध भत्यूल
अयूं होलू फुलार हमारा सैंत्यां आर चोलों मा
होला चैती पसरू मांगणा औजी खोला खोलो मा
ढक्यां द्वार मोर देखिकी फुलारी खौल्यां होला
हिंदी अनुवाद :
चलो 'फुलारियो'! (फूल डालने वाले बच्चे) फूलों के लिए
ताज़े ताज़े फूल चुन लें
हे जी ! खेतों में खिल गयी होंगी 'फ्योलि' की लड़ियाँ
मुझे घर छोड़ आओ
हे जी ! घर और वन में लौट आया होगा सुकुमार बसन्त
मुझे घर छोड़ आओ
चलो 'फुलारियो'! (फूल डालने वाले बच्चे) फूलों के लिए
ताज़े ताज़े फूल चुन लें
भँवरों के झूठे फूल ना तोड़ना
मधु-मक्खियों के झूठे फूल ना लाना
ना वैसा निर्मल यहाँ का आकाश, ना स्नेहिल यहाँ की धरती
अनजान लोग हैं, विपरीत
मनुष्य अनमेल हैं चारों ओर
छी ! अभागे परदेस में तुम्हें रहना है, रहो
मुझे घर छोड़ आओ
फुल फुल देवी! दाल चावल दे
घोघा देवता, फ्युली के फूल
घोघा फुलदेयी की डोली सजेगी
गुड़ का प्रसाद, दही, दूध-भात का नैवेद्य
खिले होंगे फूल हमारे उगाये हुवे आड़ू (peach), ख़ुबानी (apricot) पर
होंगे चैत (महीने) का शगुन माँग रहे, औजी (drummers) आँगन आँगन में
ढके हुवे दरवाजे (मोरी) देख कर 'फुलारि' (फूल डालने वाले बच्चे), ठगे रह गये होंगे
रावणकृत यह शिवताण्डव स्तोत्र न केवल भक्ति एवं भाव के दृष्टि से अनुपम है अपितु, काव्य की दृष्टि से भी अद्भुत है। इसकी लयात्मकता, छन्द- प्रवाह, ध्वनि-सौष्ठव, अलंकार-छटा, रस-सृष्टि एवं चित्रात्मक संप्रेषणीयता सब कुछ अत्यन्त आकर्षक एवं मनोहारी है। यह अप्रतिम रचना महामना रावण के विनयशीलता, पाण्डित्य एवं काव्य-लाघव का उत्कृष्ट उदाहरण है। अनन्य भक्ति की गंगा, प्रवहमान स्वर-ध्वनि की यमुना एवं उत्कृष्ट काव्य की सरस्वती की इस त्रिवेणी में अवगाहन के पुण्यलाभ के कृतज्ञतास्वरूप इसके भावानुवाद का अकिंचन प्रयास किया है। आप भी पुण्यलाभ लें। भगवान शिव मेरा एवं समस्त लोक का कल्याण करें। -अरुण मिश्र.
‘‘अथ शिवताण्डवस्तोत्रम्’’ जटा - वन - निःसृत, गंगजल के प्रवाह से- पावन गले, विशाल लम्बी भुजंगमाल। डम्-डम्-डम्, डम्-डम्-डम्, डमरू-स्वर पर प्रचंड, करते जो तांडव, वे शिव जी, कल्याण करें।।
जटा के कटाह में, वेगमयी गंग के, चंचल तरंग - लता से शोभित है मस्तक। धग् - धग् - धग् प्रज्ज्वलित पावक ललाट पर; बाल - चन्द्र - शेखर में प्रतिक्षण रति हो मेरी।।
गिरिजा के विलास हेतु धारित शिरोभूषण से, भासित दिशायें देख, प्रमुदित है मन जिनका। जिनकी सहज कृपादृष्टि, काटे विपत्ति कठिन, ऐसे दिगम्बर में, मन मेरा रमा रहे।।
जटा के भुजंगो के फणों के मणियों की- पिंगल प्रभा, दिग्वधुओं के मुख कुंकुम मले। स्निग्ध, मत्त - गज - चर्म - उत्तरीय धारण से, भूतनाथ शरण, मन अद्भुत विनोद लहे।।
इन्द्र आदि देवों के शीश के प्रसूनों की- धूलि से विधूसर है, पाद-पीठिका जिनकी। शेष नाग की माला से बाँधे जटा - जूट, चन्द्रमौलि, चिरकालिक श्री का विस्तार करें।।
ललाटाग्नि ज्वाला के स्फुलिंग से जिसके- दहे कामदेव, और इन्द्र नमन करते हैं। चन्द्र की कलाओं से शोभित मस्तिष्क जटिल,
ऐसे उन्नत ललाट शिव को मैं भजता हूँ ।।
भाल-पट्ट पर कराल,धग-धग-धग जले ज्वाल, जिसकी प्रचंडता में पंचशर होम हुये। गौरी के कुचाग्रों पर पत्र - भंग - रचना के- एकमेव शिल्पी, हो त्रिलोचन में रति मेरी।।
रात्रि अमावस्या की, घिरे हों नवीन मेघ, ऐसा तम, जिनके है कंठ में विराजमान। चन्द्र और गंग की कलाओं को शीश धरे- जगत्पिता शिव, मेरे श्री का विस्तार करें।।
खिले नील कमलों की, श्याम वर्ण हरिणों की, श्यामलता से चिह्नित, जिनकी ग्रीवा ललाम। स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम औरअन्धक का, उच्छेदन करते हुये शिव को, मैं भजता हूँ।।
मंगलमयी गौरी के कलामंजरी का जो- चखते रस - माधुर्य, लोलुप मधुप बने। स्मर,पुर,भव, मख, गज, तम और अन्धक के, हैं जो विनाशक, उन शिव को मैं भजता हूँ।।
भ्रमित भुजंगों के तीव्र निःश्वासों से- और भी धधकती है, भाल की कराल अग्नि। धिमि-धिमि-धिमि मंगल मृदंगों की तुंग ध्वनि- पर, प्रचंड ताण्डवरत्, शिव जी की जय होवे।।
पत्तों की शैय्या और सुन्दर बिछौनों में; सर्प - मणिमाल, और पत्थर में, रत्नों में। तृण हो या कमलनयन तरुणी; राजा - प्रजा; सब में सम भाव, सदा ऐसे शिव को भजूँ।।
गंगा तट के निकुंज - कोटर में रहते हुये, दुर्मति से मुक्त और शिर पर अंजलि बॉधे। विह्वल नेत्रों में भर छवि ललाम - भाल की, जपता शिवमंत्र, कब होऊँगा सुखी मैं।।
उत्तमोत्तम इस स्तुति को जो नर नित्य, पढ़ता, कहता अथवा करता है स्मरण। पाता शिव - भक्ति; नहीं पाता गति अन्यथा; प्राणी हो मोहमुक्त, शंकर के चिन्तन से।।
शिव का कर पूजन, जो पूजा की समाप्ति पर, पढ़ता प्रदोष में, गीत ये दशानन का। रथ, गज, अश्व से युक्त, उसे अनुकूल, स्थिर श्री - सम्पदा, शंभु सदा देते हैं।।