सोमवार, 29 मार्च 2021

यूँ हवाओं में, घुल गई होली.../ अरुण मिश्र

 

होली...

                        -अरुण मिश्र 

   यूँ हवाओं में,  घुल  गई होली।
रंग बरसे तो,  धुल  गई होली।
सारे आलम में, मस्तियाँ बिखरीं।
इक पिटारी सी,खुल गई होली।।    



बेल-बूटों सी,  है  कढ़ी  होली।
फ्रेम में मन के, है  मढ़ी  होली। 
रंग का इक तिलिस्म है, हर-सू।
सर पे जादू सी, है  चढ़ी होली।।

   

सीढ़ी दर सीढ़ी है,  उतरी  होली।
आके अब लान में,  पसरी  होली।
संग हवा के, गुलाल बन के उड़ी।
रंग में भीगी तो,   निखरी  होली।।

   

हाथ   यूँ   ही,   हिला  रही  होली।
खेल   मुझको,    खिला  रही  होली।
कितनी मुश्क़िल से, पहुँचा आंगन तक।
शायद  छत  पे,    बुला  रही  होली।।

    


   देखो हौले से,  आ  रही होली।
मेरे जी को,  लुभा  रही  होली।
उम्र तक को, धकेल कर  पीछे।
कानों में होली, गा रही,  होली।।

          

मीठी यादें,  जगा  रही  होली।
चैन मन का, भगा  रही  होली।
रंग की बारिशों,  न थम जाना।
आग दिल में, लगा  रही होली।।

      

ख़ुश्क  है ’औ कभी  पुरनम होली।
कभी शोला, कभी   शबनम होली।
रंग है, रस है,  रूप है, कि महक।
एक मौसम है,  कि  सरगम होली।।

      

प्यासी  आँखों  का,  ख़्वाब  है होली।
चप्पा- चप्पा,   गुलाब   है    होली।
लब पे आने से,  झिझकता जो सवाल।
उसका,   मीठा   जवाब   है   होली।।

     

फूली सरसों,  संवर  रही  होली।
आम बौरे,    निखर  रही  होली।
कोयलें    कूकीं,  पपीहे  पागल।
रस के झरने  सी झर रही होली।।

        

यूँ  मज़े  में,   शुमार   है   होली।
ज़ोश ,  मस्ती,   ख़ुमार,  है  होली।
इस बरस, कैश  जो किया सो किया।
बाकी   तुम  पर,  उधार  है होली।।

                         *
 (पूर्वप्रकाशित)

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