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श्री गोस्वामी तुलसीदास कृत
(विनय पत्रिका पद २५)
शब्दार्थ-
विबुध = देवता । कैरवानन्दकारी = कुमुदिनीको विकसित करनेवाले। चंड-कर-प्रचण्ड किरण वाले सूर्य । ग्रासकर्त्ता-निगल जानेवाले। सक-इन्द्र । पवि= बज ।खवींकरन = तोड़नेवाले । पाता= रक्षक । वपु = शरीर । भूनन्दिनी-जानकीजी । अकुलित =आत । विधायी-विधानकर्ता । तैलिक यन्त्र – कोल्हू । तमीचर =राक्षस। यालि – डालकर । घटकरन = कुम्भकर्ण । कदन = नाश । सुघट विघटन =सम्भवको असम्भव करने- वाले । विख्यात प्रसिद्ध । विदुष= पण्डित ।
भावार्थ-
हे हनुमानजी, तुम्हारी जय हो। तुम अंजनी के गर्भरूपी समुद्र से उत्पन्न होकर चन्द्रमा के समान देवकुल रूपी कुमुद को विकसित करने वाले हो । तुम अपने पिता के शरीर के सुन्दर नेत्र रूपी चकोरों को सुख देने वाले और समस्त लोकों का शोक-सन्ताप हरने वाले हो ॥१॥
तुम्हारी जय हो, जय हो। तुमने बचपन में उदयकालीन प्रचण्ड रवि-मण्डल को लाल खिलौना समझकर निगल लिया था । उस समय तुमने राहु, सूर्य, इन्द्र और उनके वज्र का गर्व तोड़ दिया था । हे शरणागतों का भय हरनेवाले ! हे चौदह भुवनके स्वामी ! तुम्हारी जय हो ॥२॥
हे युद्धक्षेत्र में धैर्य धारण करने वाले महावीरजी, तुम्हारी जय हो ! तुम श्रीरामजी के हितार्थ देव-शिरोमणि रुद्र के अवतार हो और संसार के रक्षक हो । तुम्हारा शरीर ब्राह्मण, देवता, सिद्ध और मुनियों के आशीर्वाद का साकार रूप है। तुम निर्मल गुण और बुद्धिसागर तथा विधाता हो ॥३॥
हे उचित शिक्षा आदि से सुग्रीवको रक्षा करने में चतुर हनुमानजी, तुम्हारी जय हो । तुम महा पराक्रमी बालि के मरवाने के मुख्य कारण हो । तुम समुद्र लाँधते समय सिंहिका नाम- की राक्षसी का मद-मर्दन करने वाले सिंह हो । निशाचरों की लंकापुरी में उत्पात करने के लिए केतु हो ॥४॥
हे जानकी जी को चिन्ताओं को दूर करने वाले, अशोक वन को उजाड़ने की नीयत से निःशंक होकर अपने को मेघनाद के ब्रह्मास्त्र में बँधवाने- वाले, तुम्हारी जय हो। तुमने अपनी पूँछ की लीला द्वारा आग की ज्वालमाला से आर्त रावण की लंकापुरी में होली-दहन-सा मचा दिया था ॥५॥
हे राम और लक्ष्मण को आनन्दित करनेवाले, तुम्हारी जय हो ! तुम रीछ और बन्दरों की सेना संघटित करने के विधायक होकर समुद्र पर पुल बाँधने वाले हो, देवताओं का कल्याण करने वाले हो और सूर्यकुल-केतु (ध्वजा) श्रीराम जी को संग्राम में विजय-लाभ कराने- वाले हो ॥६॥
तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम्हारा शरीर, दाँत, नख और विकट मुँह वज्र के समान हैं । तुम्हारे भुजदंड बड़े प्रचंड हैं। तुम वृक्षों और पर्वतों को हाथों से उठानेवाले हो। तुमने समर-रूपी तेल पेरने के कोल्हू, राक्षस-समूह और बड़े-बड़े योद्धा रूपी तिलो की घानी डालकर पेर डाला है ।।७।।
हे रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के नाश के कारण, तथा कालनेमि राक्षस को मारने वाले, तुम्हारी जय हो। तुम असम्भव को सम्भव और सम्भव को असम्भव कर दिखाने में बड़े ही विकराल हो । तुम पृथ्वी, पाताल, जल और आकाश में गमन करने- वाले हो ॥८॥
हे जगत्प्रसिद्ध वाणैत, तुम्हारी जय हो । पण्डित और वेद विमल वाणी से तुम्हारी गुणावली का वर्णन करते हैं। तुम तुलसीदास के भय को नाश करने वाले श्रीसीतारमण के साथ अयोध्यापुरी में सदा शोभायमान रहते हो॥९॥
विशेष
१-‘जयति अंजनी गर्भ-अंभोधि में रूपक अलङ्कार है.
२–’केसरी’ नामक बानर की पत्नी का नाम अंजनी था । एक दिन अंजनी शृङ्गार किये खड़ी थी। इतने में पवनदेव वहाँ आये और उसके रूपलावण्य पर मुग्ध हो गये। उन्हीं के वीर्य से अंजनी के गर्भ से हनुमानजी का जन्म हुआ। इसी से इन्हें ‘केसरी-नन्दन’ भी कहते हैं ? यहाँ उसी केसरी का नाम आया है।
३-‘ग्रासकर्ता’-आमावस्या का दिन था और प्रातःकाल का समय । हनुमान- जी को बहुत भूख लगी थी। वह उगते हुए सूर्य को लाल फल जानकर उनकी ओर लपके और देखते-देखते पकड़कर निगल गये। उस दिन ग्रहण भी था। सूर्य को न देखकर राहु बहुत निराश हुआ और इन्द्र के पास पहुँचकर बोला, आज मैं क्या खाऊँगा ? सूर्य को किसी दूसरे ने ही खा डाला। यह सुनते ही इन्द्र दौड़े। उन दोनों को आते देखकर हनुमानजी ने उनको भी निगलने के लिए हाथ बढ़ाया । इतने में इन्द्रने उनपर वज्र चलाया, पर वज्र उनकी ठुड्डी में लगा। इससे वह मूर्ञ्छित हो गये और वज्र भी टूट गया । तभी से महावीर जी का नाम हनुमान पड़ा । यह कथा वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड में लिखा है।
४-‘राहु रवि “खर्वीकरन’-जिस समय राहु देवराज इन्द्र के साथ आ रहा था, उस समय हनुमानजी उसको काला फल समझकर उसकी ओर लपके थे। इससे राहु भयभीत होकर भाग गया था। सूर्यको वह पहले ही निगल चुके थे। उनका प्रभाव देखकर इन्द्र भी दर गये थे । जो वज्र पहाड़ों को तोड़ डालता। उससे महावीर जी की केवल दाढ़ी मात्र जरा-सी टेढ़ी हो गयी, इससे वज्र का भी गर्व चूर हो गया ।
५–’रुद्र अवतार’-शिवजी ने श्रीरामजी से दासभाव से सेवा करने के लिए वर माँगा था। तदनुसार ही समय पाकर वे हनुमान के रूप में श्रीरामजी के सेवक बने । इसी से हनुमान जी एकादश रुद्र माने जाते हैं।
६-‘आशिषाकार वपु’-जिस समय इन्द्र के वज्र से हनुमानजी मूछित हो गये थे, उस समय उनके पिता पवन ने कुपित होकर अपनी गति बन्द कर दी थी । इससे विश्व-ब्रम्हाण्ड थर्रा उठा । इन्द्रादिक देवताओं के प्रार्थना करने पर ब्रह्मा बहुत-से देवताओं और मुनियोंको साथ लेकर वायु के पास गये और महावीर के मस्तक पर हाथ फेरा । उनकी कृपासे महावीर की मूर्छा दूर हो गयी। उसके बाद देवताओं और मुनियों ने हनुमानजी को आशीर्वाद दिया। इसीसे उन्हें ‘आशिषाकार वपु’ कहा गया है। यह कथा भी वाल्मीकीय-रामायण के उत्तरकाण्ड में है।
७–’बालिबधमुख्यहेतू’-जब भगवान् सीता को ढूँढ़ते हुए ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुंचे तो पहले हनुमान जी उनसे मिले और उनको ले जाकर सुग्रीव से मैत्री करायी। वह मैत्री बालि-बध का कारण हुई।
८-‘सिंहिका-मद-मथन’-सिंहिका राक्षसी समुद्र में रहती थी और आकाश मार्ग से जानेवाले जीवों की परछाई जल में देखकर उन्हें पकड़कर खा जाती थी। उसने हनुमानजी को भी पकड़कर निगलना चाहा। किन्तु हनुमानजी ने एक मुक्का मारकर उसका प्राण लिया ।
९-‘दसकंठ कारन’-यदि हनुमानजी महारानी जानकी जी की खबर श्रीरामजी को न सुनाते तो रावणादिका बध न होता। इसी से रावणादि के बधके कारण कहे गये हैं। दूसरी बात यह भी है कि युद्ध के समय जब रावण विजय प्राप्त करने के लिए यज्ञ का अनुष्ठान करने लगा, तो विभीषगने रामचन्द्र की सेनामें इसकी सूचना दी। कहा कि यदि रावण इस अनुष्ठान में सफल हो जायगा तो उस पर विजय पाना अत्यन्त कठिन हा जायगा । इसलिए उसके यज्ञको विध्वंस करना चाहिए। इस कामका भार हनुमानजीने अपने ऊपर लिया और थोड़ी-सी सेना साथ ले जाकर उस यज्ञको विध्वंस कर दिया। पश्चात् रावण युद्ध-क्षेत्रमें आकर मारा गया । इस प्रकार हनुमानजी उसकी मृत्यु के कारण बने। रण में कुम्भकर्ण को बलहीन करने के भी मूल कारण हनुमान जी ही थे।-लक्ष्मण जी को शक्तिबाण से मूञ्छित देखकर हनुमान जी संजीवनी बूटी लानेके लिए धौलागिरि- को ही उठा लाये थे । उस बूटी के द्वारा मूर्छा दूर होनेपर लक्ष्मणजी ने दूसरे ही दिन मेघनाद को मारा था। इससे वह नेघनाद भी वध के कारण माने जाते हैं।
१०-‘कालनेमिहंता’-यह रावण के पक्ष का बड़ा ही मायावी राक्षस था। जब हनुमान जी लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी लाने गये थे तो इसने मार्ग में साधु का वेष धारण करके उन्हें छलने का विचार किया। हनुमानजी को उसकी माया मालूम हो गयी और तुरन्त ही उन्होंने उसकी जान ले ली, इसी से वह कालनेमि हंता कहलाते हैं।
११-‘अघट घटना “विघटन’-समुद्र को लाँघना असम्भव है, किन्तु हनुमानजी ने उसे सम्भव कर दिखाया था । पूंछ की आग से हनुमान जी के भस्म हो जाने की पूरी सम्भावना थी, पर उन्होंने उस सम्भव कार्यको असम्भव कर दिया और उस आग से लंकापुरी को जलाकर असम्भव को सम्भव भी कर दिया।
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