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चन्दन चर्चित नील कलेवर...
चन्दनचर्चितनीलकलेवरपीतवसनवनमाली ।
केलिचलन्मणिकुण्डलमण्डितगण्डयुगस्मितशाली ॥
हरिरिहमुग्धवधूनिकरे
विलासिनि विलसति केलिपरे ॥ १॥
अनुवाद- हे विलासिनी श्रीराधे! देखो! पीतवसन धारण किये हुए,
अपने तमाल-श्यामल-अंगो में चन्दन का विलेपन करते हुए,
केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिन में मुग्ध वधुटियों के
साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण
दोनों कानों में कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, उनके कपोलद्वय
की शोभा अति अद्भुत है। मधुमय हासविलास के द्वारा
मुखमण्डल अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ॥१॥
अपने तमाल-श्यामल-अंगो में चन्दन का विलेपन करते हुए,
केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिन में मुग्ध वधुटियों के
साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण
दोनों कानों में कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, उनके कपोलद्वय
की शोभा अति अद्भुत है। मधुमय हासविलास के द्वारा
मुखमण्डल अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ॥१॥
पीनपयोधरभारभरेण हरिं परिरम्य सरागम् ।
गोपवधूरनुगायति काचिदुदञ्चितपञ्चमरागम् ॥
हरिरिह...॥२॥
अनुवाद- देखो सखि! वह एक गोपांगना अपने पीनतर पयोधर-युगल के
विपुल भार को श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर सन्निविष्टकर प्रगाढ़ अनुराग के
साथ सुदृढ़रूप से आलिंगन करती हुई उनके साथ पञ््चम स्वर में गाने
लगती है ॥२॥
कापि विलासविलोलविलोचनखेलनजनितमनोजम् ।
ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदनवदनसरोजम् ॥
हरिरिह...॥ ३॥
अनुवाद- देखो सखि! श्रीकृष्ण जिस प्रकार निज अभिराम मुखमण्डलकी श्रृंगार
रस भरी चंचल नेत्रों की कुटिल दृष्टि से कामिनियों के चित्त में मदन विकार करते
हैं, उसी प्रकार यह एक वरांगना भी उस वदनकमल में अश्लिष्ट (संसक्त) मकरन्द
पान की अभिलाषा से लालसान्वित होकर उन श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही है ॥३॥
कापि कपोलतले मिलिता लपितुं किमपि श्रुतिमूले ।
चारु चुचुम्ब नितम्बवती दयितं पुलकैरनुकूले ॥
हरिरिह...॥ ४॥
अनुवाद- वह देखो सखि! एक नितम्बिनी (गोपी) ने अपने प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के
कर्ण (श्रुतिमूल) में कोई रहस्यपूर्ण बात करने के बहाने जैसे ही गण्डस्थल पर मुँह
लगाया तभी श्रीकृष्ण उसके सरस अभिप्राय को समझ गये और रोमाञ्चित हो उठे।
पुलकाञ्चित श्रीकृष्ण को देख वह रसिका नायिका अपनी मनोवाञ्छा को पूर्ण करने
हेतु अनुकूल अवसर प्राप्त करके उनके कपोल को परमानन्द में निमग्न हो चुम्बन
करने लगी ॥४॥
केलिकलाकुतुकेन च काचिदमुं यमुनाजलकूले ।
मञ्जुलवञ्जुलकुञ्जगतं विचकर्ष करेण दुकूले ॥
हरिरिह...॥ ५॥
अनुवाद- सखि! देखो, यमुना पुलिन पर मनोहर वेतसी (वञ्जुल या वेंत)कुञ्ज में किसी गोपी ने एकान्त पाकर कामरस वशवर्त्तिनी हो क्रीड़ाकला कौतूहल से उनके वस्त्रयुगल को अपने हाथों से पकड़कर खींच लिया ॥५॥
करतलतालतरलवलयावलिकलितकलस्वनवंशे ।
रासरसे सह नृत्यपरा हरिणा युवतिः प्रशशंसे ॥
हरिरिह...॥६॥
अनुवाद- हाथों की ताली के तान के कारण चञ्चल कंगण-समूह से अनुगत
वंशीनाद से युक्त अद्भुत स्वर को देखकर श्रीहरि रासरस में आनन्दित
नृत्य-परायणा किसी युवती की प्रशंसा करने लगे ॥६॥
श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि कामपि रमयति रामाम् ।
पश्यति सस्मितचारुतरामपरामनुगच्छति वामाम् ॥
हरिरिह...॥ ७॥
आलिंगन करते हैं, किसी का चुम्बन करते हैं, किसी के साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधा का अवलोकन कर किसी को निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनी के पीछे-पीछे चल रहे हैं ॥७॥
श्रीजयदेवकवेरिदमद्भुतकेशवकेलिरहस्यम् ।
वृन्दावनविपिने ललितं वितनोतु शुभानि यशस्यम् ॥
हरिरिह...॥ ८॥
अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित यह अद्भुत मंगलमय ललित गीत
सभी के यश का विस्तार करे। यह शुभद गीत श्रीवृन्दावन के विपिन विहार
में श्रीराधा जी के विलास परीक्षण एवं श्रीकृष्ण के द्वारा की गयी अद्भुत
कामक्रीड़ा के रहस्य से सम्बन्धित है। यह गान वन बिहारजनित सौष्ठव को
अभिवर्द्धित करने वाला है॥८॥
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