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यह बिनती रघुबीर गुसाईं...
गोस्वामी तुलसीदास कृत
विनय-पत्रिका पद सं0- १०३
विनय-पत्रिका पद सं0- १०३
यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद, बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि, जहँ-जहँ अपनी बरिआई ।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥ ३ ॥
या जग मेँ जहँ लगि या तनु की, प्रीति-प्रतीति-सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों, होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥ ४ ॥
अर्थ
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद, बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि, जहँ-जहँ अपनी बरिआई ।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥ ३ ॥
या जग मेँ जहँ लगि या तनु की, प्रीति-प्रतीति-सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों, होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥ ४ ॥
अर्थ
हे रघुनाथ जी ! हे नाथ ! मेरी विनती है कि इस जीवको दुसरे
साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है,
उस मूर्खता को आप हर लीजिये ॥१॥
हे राम ! मैं शुभगति, सद्बुद्धि, धन-संपत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और
बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता. बस, मेरा तो
आपके चरण-कमलोंमें दिनोंदिन अधिक-से-अधिक अनन्य
और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ ॥२॥
मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस-जिस योनि में ले जाएँ,
उस-उस योनिमें ही हे नाथ ! जैसे कछुआ अपने अण्डों को
नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभर के लिए भी अपनी कृपा
न छोड़ना ॥३॥
हे नाथ ! इस संसारमें जहां तक इस शरीरका (स्त्री-पुत्र-
परिवारादिसे) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही
स्थान पर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय ॥४॥
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