होली...
-अरुण मिश्र
यूँ हवाओं में, घुल गई होली।
रंग बरसे तो, धुल गई होली।
सारे आलम में, मस्तियाँ बिखरीं।
इक पिटारी सी,खुल गई होली।।
बेल-बूटों सी, है कढ़ी होली।
फ्रेम में मन के, है मढ़ी होली।
रंग का इक तिलिस्म है, हर-सू।
सर पे जादू सी, है चढ़ी होली।।
सीढ़ी दर सीढ़ी है, उतरी होली।
आके अब लान में, पसरी होली।
संग हवा के, गुलाल बन के उड़ी।
रंग में भीगी तो, निखरी होली।।
हाथ यूँ ही, हिला रही होली।
खेल मुझको, खिला रही होली।
कितनी मुश्क़िल से, पहुँचा आंगन तक।
शायद छत पे, बुला रही होली।।
देखो हौले से, आ रही होली।
मेरे जी को, लुभा रही होली।
उम्र तक को, धकेल कर पीछे।
कानों में होली, गा रही, होली।।
मीठी यादें, जगा रही होली।
चैन मन का, भगा रही होली।
रंग की बारिशों, न थम जाना।
आग दिल में, लगा रही होली।।
ख़ुश्क है ’औ कभी पुरनम होली।
कभी शोला, कभी शबनम होली।
रंग है, रस है, रूप है, कि महक।
एक मौसम है, कि सरगम होली।।
प्यासी आँखों का, ख़्वाब है होली।
चप्पा- चप्पा, गुलाब है होली।
लब पे आने से, झिझकता जो सवाल।
उसका, मीठा जवाब है होली।।
फूली सरसों, संवर रही होली।
आम बौरे, निखर रही होली।
कोयलें कूकीं, पपीहे पागल।
रस के झरने सी झर रही होली।।
यूँ मज़े में, शुमार है होली।
ज़ोश , मस्ती, ख़ुमार, है होली।
इस बरस, कैश जो किया सो किया।
बाकी तुम पर, उधार है होली।।
*
(पूर्वप्रकाशित )
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