शुक्रवार, 15 मार्च 2019

जब फागुन रंग झमकते हों

https://youtu.be/xE1aNMh7tNE

रचना : नज़ीर अक़बराबादी 
गायन : कविता सेठ 

जब फागुन रंग झमकते हों

-नज़ीर अक़बराबादी

नज़ीर अकबराबादी (१७३५-१८३०), जिन का असली नाम वली मुहम्मद था, को उर्दू 'नज़्म का पिता' करके जाना जाता है । वह आम लोगों के कवि थे । उन्होंने आम जीवन, ऋतुयों, त्योहारों, फलों, सब्जियों आदि विषयों पर लिखा । वह धर्म-निरपेक्षता की ज्वलंत उदाहरण हैं । कहा जाता है कि उन्होंने लगभग दो लाख रचनायें लिखीं । परन्तु उनकी छह हज़ार के करीब रचनायें मिलती हैं और इन में से ६०० के करीब ग़ज़लें हैं।

होली

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की ।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की ।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की ।
ख़म शीशए, जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की ।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की ।।1।।

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे ।
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे ।
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे ।
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुँहचंग भरे ।
कुछ घुँघरू ताल झनकते हों तब देख बहारें होली की ।।2।।

सामान जहाँ तक होता है इस इशरत के मतलूबों का ।
वो सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो ख़ूबों का ।
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का ।
इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का ।
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की ।।3।।

गुलज़ार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो ।
कपड़ों पर रंग के छीटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो ।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो ।
उस रंग भरी पिचकारी को, अँगिया पर तककर मारी हो ।
सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की ।।4।।

इस रंग रंगीली मजलिस में, वह रंडी नाचने वाली हो ।
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो औऱ आँख भी मय की प्याली हो ।
बदमस्त, बड़ी मतवाली हो, हर आन बजाती ताली हो ।
मयनोशी हो बेहोशी हो 'भड़ुए' की मुँह में गाली हो ।
भड़ुए भी भड़ुवा बकते हों, तब देख बहारें होली की ।।5।।

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवैयों के लड़के ।
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घट के कुछ बढ़-बढ़ के ।
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गावें अड़-अड़ के ।
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फ़ड़के ।
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की ।।6।।

यह धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का छक्कड़ हो ।
उस खींचा-खींच घसीटी पर और भडुए रंडी का फक्कड़ हो ।
माजून शराबें, नाच, मज़ा और टिकिया, सुलफ़ा, कक्कड़ हो ।
लड़-भिड़के 'नज़ीर' फिर निकला हो कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो ।
जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की ।।7।।







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