https://youtu.be/-ppVJrwItdM
Jyothi Chalam is a scholar and teacher of
Advaita Vedanta philosophy as well as an
accomplished South Indian classical music
singer. She is known as a teacher’s teacher
– when it comes to Vedanta philosophy and
Sadhana practices. Jyothi has had ten years
of intensive study studying the Vedantic
scriptures of the Upanishads, Bhagavad Gita
and the Brahmasutras. And translating it to
the Yogic practices of Mediation, Puja,
Pranayama, Mantra chantings and Hatha yoga.
Many people end up studying Vedanta from
Jyothi by Zoom one on one. It’s based on the
original ashram style teacher-student model.
Jyothi’s lineage comes from Swami Dayananda
Saraswati of Arsha Vidya Gurukulam.
Advaita Vedanta philosophy as well as an
accomplished South Indian classical music
singer. She is known as a teacher’s teacher
– when it comes to Vedanta philosophy and
Sadhana practices. Jyothi has had ten years
of intensive study studying the Vedantic
scriptures of the Upanishads, Bhagavad Gita
and the Brahmasutras. And translating it to
the Yogic practices of Mediation, Puja,
Pranayama, Mantra chantings and Hatha yoga.
Many people end up studying Vedanta from
Jyothi by Zoom one on one. It’s based on the
original ashram style teacher-student model.
Jyothi’s lineage comes from Swami Dayananda
Saraswati of Arsha Vidya Gurukulam.
INTRODUCTIN
ShrI Shankara sums up the essence of Vedanta in dasashlokI. Hestates that Only Atman Is real while the world of names, form and various manifestations are just maya . He goes on to say that Atman is same as the supreme Brahman . Shankara also emphasises, as do upaniShads that the manwho realizes Atma ALONE transcends worldly sorrow.Many scholars consider dashashlokI to be the last pronouncement of Shankara on the non-dual nature of Atman . In a very simple way using just 10 verses, Shankara expounds on the nature of Atman -- the attributeless Truth, indestructible, and the very basis of supreme bliss and purity.
सिद्धान्तबिन्दु / सिद्धान्तकौमुदी / दश-श्लोकी
न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायुर्न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः ।
अनैकान्तिकत्वात्सुषुप्त्येकसिद्धस्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। १ ।।
'अहं' अहमर्थ का अवलम्बन, न भूमि है, न जल है, न तेज है, न वायु है, न आकाश है, न प्रत्येक इन्द्रिय है, न भूमि आदि का समूह है; क्योंकि ये सब व्यभिचारी(विनाशी) हैं । सुषुप्ति में एक साक्षीरूप से सिद्ध, अद्वितीय, अविनाशी, निर्धर्मक, शिव जो है, वही मैं हूँ।
न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा
न मे धारणाध्यान योगादयोऽपि।
अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। २ ।।
न वर्ण हैं, न वर्णो के आचार-धर्म हैं, न आश्रमों के आचार-धर्म हैं, न मेरी धारणा है, न ध्यान है, न योगादि ही है; क्योंकि अविद्या से उत्पन्न अहङ्कार और ममकार अध्यास का तत्वज्ञान से नाश हो जाता है, इसलिए तत्प्रयुक्त वर्णाश्रम आदि व्यवहार भी नहीं रहते। सब प्रमाणों के बाढ़ होने पर भी अबाधित, अद्वितीय, निर्धर्मक, शिव मैं हूँ ।
न माता न पिता वा न लोका न देवा
न वेदा न यज्ञा न तीर्थं ब्रुवन्ति ।
सुषुप्तौ निरस्ताति शून्यात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ३ ।।
न माता है, न पिता है, न लोक हैं, न वेद हैं, न यज्ञ हैं, न तीर्थ हैं । सुषुप्ति में निरस्त अति शून्यात्मक होने से एक, अविशेष, केवल, शिव, मैं हूँ ।
न सांख्यं न शैवं न तत्पाञ्चचरारात्रं
न जैनं न मीमांसकादेर्मतं वा ।
विशिष्टानुभूत्या विशुद्धात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ४ ।।
न सांख्य का मत श्रेष्ठ है, न शैव, न पाञ्चरात्र, न जैन, न मीमांसकों का ही मत उचित है, विशिष्टानुभूति से विशुद्धात्मक होने से एक, अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
न चोर्ध्वं न चाधो न चान्तर्न बाह्यं
न मध्यं न तिर्यङ् न पूर्वापरा दिक् ।
वियद्वयापकत्वादखण्डैकरूप -
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ५ ।।
न उर्ध्व है, न अधः है, न अन्दर है, न बाह्य है, न मध्य है न तिर्य्यक है, न पूर्व दिशा है, न पश्चिम दिशा । आकाश के समान व्यापक होने से अखण्डैकरूप, एक, अवशिष्ट, शिव मैं हूँ ।
न शुक्लं न कृष्णं न रक्तं न पीतं
न कुब्जं न पीनं न ह्रस्वं न दीर्घम् ।
अरूपं तथा ज्योतिराकारकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ६ ।।
न शुक्ल है, न कृष्ण है, न लाल है, न पीला है, न कुब्ज है, न पीन है, न ह्रस्व है और न दीर्घ है, स्वप्रकाश ज्योतिस्वरूप होने से अप्रमेय एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।
न शास्ता न शास्त्रं न शिष्यो न शिक्षा
न च त्वं न चाहं न वाऽयं प्रपञ्चः।
स्वरूपावबोधो विकल्पासहिष्णु-
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।। ७ ।।
न शास्ता है, न शास्त्र है, न शिष्य है, न शिक्षा है, न तुम हो, न मैं हूँ, न यह प्रपञ्च है, स्वरूपज्ञान विकल्प का सहन नहीं करता इसलिए एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।
शास्ता- उपदेश करनेवाला गुरु
शास्त्र - जिसके द्वारा उपदेश किया जाता है
शिष्य - उपदेश-भाजन
शिक्षा - उपदेश-क्रिया
तुम - श्रोता
मैं - वक्ता
सब प्रमाणों के सन्निधापित देह, इन्द्रिय आदि रूप, यह प्रपञ्च परमार्थतः नहीं हैं ।
न जागन्न मे स्वप्नको वा सुषुप्तिः
न विश्वो न वा तैजसः प्राज्ञको वा।
अविद्यात्मकत्वात्त्रयाणां तुरीय-
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ८ ।।
न मेरा जागरण है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न मैं विश्व हूँ, न तैजस हूँ, न प्राज्ञ । ये तीनों अविद्या के कार्य हैं, अतः इनमें चतुर्थ, एक, अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
अपि व्यापकत्वाद्धितत्वप्रयोगात्
स्वतःसिद्धभावादनन्याश्रयत्वात् ।
जगत्तुच्छमेतत्समस्तं तदन्यत्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ९ ।।
साक्षी से अन्य समस्त जगत तुच्छ है । साक्षी तुच्छ नहीं है, क्योंकि वह व्यापक है, पुरुषार्थरूप है, स्वतःसिद्ध भाव पदार्थ है, स्वतंत्र है । एक अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
न चैकं तदन्यद् द्वितीयं कुतः स्याद्
न वा केवलत्वं न चाऽकेवलत्वम् ।
न शून्यं न चाशून्यमद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ।। १० ।।
एक भी नहीं है, उससे अन्य द्वितीय कहाँ से होगा ? आत्मा में केवलत्व (एकत्व) भी नहीं है । अकेवलत्व (अनेकत्व) भी नहीं है । न शून्य है, न अशून्य है । अद्वैत होने से सब वेदान्तों से सिद्ध को मैं कैसे कहूं ?
इति सिद्धान्तकौमुदी
अनैकान्तिकत्वात्सुषुप्त्येकसिद्धस्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। १ ।।
'अहं' अहमर्थ का अवलम्बन, न भूमि है, न जल है, न तेज है, न वायु है, न आकाश है, न प्रत्येक इन्द्रिय है, न भूमि आदि का समूह है; क्योंकि ये सब व्यभिचारी(विनाशी) हैं । सुषुप्ति में एक साक्षीरूप से सिद्ध, अद्वितीय, अविनाशी, निर्धर्मक, शिव जो है, वही मैं हूँ।
न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा
न मे धारणाध्यान योगादयोऽपि।
अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। २ ।।
न वर्ण हैं, न वर्णो के आचार-धर्म हैं, न आश्रमों के आचार-धर्म हैं, न मेरी धारणा है, न ध्यान है, न योगादि ही है; क्योंकि अविद्या से उत्पन्न अहङ्कार और ममकार अध्यास का तत्वज्ञान से नाश हो जाता है, इसलिए तत्प्रयुक्त वर्णाश्रम आदि व्यवहार भी नहीं रहते। सब प्रमाणों के बाढ़ होने पर भी अबाधित, अद्वितीय, निर्धर्मक, शिव मैं हूँ ।
न माता न पिता वा न लोका न देवा
न वेदा न यज्ञा न तीर्थं ब्रुवन्ति ।
सुषुप्तौ निरस्ताति शून्यात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ३ ।।
न माता है, न पिता है, न लोक हैं, न वेद हैं, न यज्ञ हैं, न तीर्थ हैं । सुषुप्ति में निरस्त अति शून्यात्मक होने से एक, अविशेष, केवल, शिव, मैं हूँ ।
न सांख्यं न शैवं न तत्पाञ्चचरारात्रं
न जैनं न मीमांसकादेर्मतं वा ।
विशिष्टानुभूत्या विशुद्धात्मकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ४ ।।
न सांख्य का मत श्रेष्ठ है, न शैव, न पाञ्चरात्र, न जैन, न मीमांसकों का ही मत उचित है, विशिष्टानुभूति से विशुद्धात्मक होने से एक, अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
न चोर्ध्वं न चाधो न चान्तर्न बाह्यं
न मध्यं न तिर्यङ् न पूर्वापरा दिक् ।
वियद्वयापकत्वादखण्डैकरूप -
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ५ ।।
न उर्ध्व है, न अधः है, न अन्दर है, न बाह्य है, न मध्य है न तिर्य्यक है, न पूर्व दिशा है, न पश्चिम दिशा । आकाश के समान व्यापक होने से अखण्डैकरूप, एक, अवशिष्ट, शिव मैं हूँ ।
न शुक्लं न कृष्णं न रक्तं न पीतं
न कुब्जं न पीनं न ह्रस्वं न दीर्घम् ।
अरूपं तथा ज्योतिराकारकत्वात्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ६ ।।
न शुक्ल है, न कृष्ण है, न लाल है, न पीला है, न कुब्ज है, न पीन है, न ह्रस्व है और न दीर्घ है, स्वप्रकाश ज्योतिस्वरूप होने से अप्रमेय एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।
न शास्ता न शास्त्रं न शिष्यो न शिक्षा
न च त्वं न चाहं न वाऽयं प्रपञ्चः।
स्वरूपावबोधो विकल्पासहिष्णु-
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।। ७ ।।
न शास्ता है, न शास्त्र है, न शिष्य है, न शिक्षा है, न तुम हो, न मैं हूँ, न यह प्रपञ्च है, स्वरूपज्ञान विकल्प का सहन नहीं करता इसलिए एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।
शास्ता- उपदेश करनेवाला गुरु
शास्त्र - जिसके द्वारा उपदेश किया जाता है
शिष्य - उपदेश-भाजन
शिक्षा - उपदेश-क्रिया
तुम - श्रोता
मैं - वक्ता
सब प्रमाणों के सन्निधापित देह, इन्द्रिय आदि रूप, यह प्रपञ्च परमार्थतः नहीं हैं ।
न जागन्न मे स्वप्नको वा सुषुप्तिः
न विश्वो न वा तैजसः प्राज्ञको वा।
अविद्यात्मकत्वात्त्रयाणां तुरीय-
स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ८ ।।
न मेरा जागरण है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न मैं विश्व हूँ, न तैजस हूँ, न प्राज्ञ । ये तीनों अविद्या के कार्य हैं, अतः इनमें चतुर्थ, एक, अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
अपि व्यापकत्वाद्धितत्वप्रयोगात्
स्वतःसिद्धभावादनन्याश्रयत्वात् ।
जगत्तुच्छमेतत्समस्तं तदन्यत्
तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ९ ।।
साक्षी से अन्य समस्त जगत तुच्छ है । साक्षी तुच्छ नहीं है, क्योंकि वह व्यापक है, पुरुषार्थरूप है, स्वतःसिद्ध भाव पदार्थ है, स्वतंत्र है । एक अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।
न चैकं तदन्यद् द्वितीयं कुतः स्याद्
न वा केवलत्वं न चाऽकेवलत्वम् ।
न शून्यं न चाशून्यमद्वैतकत्वात्
कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ।। १० ।।
एक भी नहीं है, उससे अन्य द्वितीय कहाँ से होगा ? आत्मा में केवलत्व (एकत्व) भी नहीं है । अकेवलत्व (अनेकत्व) भी नहीं है । न शून्य है, न अशून्य है । अद्वैत होने से सब वेदान्तों से सिद्ध को मैं कैसे कहूं ?
इति सिद्धान्तकौमुदी
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