शनिवार, 19 जून 2021

श्याम तामरस दाम शरीरं...(श्री रामचरित मानस - अरण्य काण्ड) / गोस्वामी तुलसी दास / गायक : श्रीकान्त परगांवकर

 https://youtu.be/528FNZne0O8  

सुतीक्ष्ण मुनि कृत श्री राम स्तुति 

चौपाई
कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी।।
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी।।
श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं।। 
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं।।
मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः।।
निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः।।
अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं।।
हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं।।
संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः।।
भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः।।
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं।।
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं।।
भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः।।
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः।।
अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः।।
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः।। 
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी।।
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी।।
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी।।
जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे।।
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए।।
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही।।
मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा।।
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई।।
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना।।
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा।। 

सोरठा
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम।।11।।

चौपाई 

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1

भावार्थ:-मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँआपकी महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है। जैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला!॥1

श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं॥2

भावार्थ:-हे नीलकमल की माला के समान श्याम शरीर वाले! हे जटाओं का मुकुट और मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहने हुएहाथों में धनुष-बाण लिए तथा कमर में तरकस कसे हुए श्री रामजी! मैं आपको निरंतर नमस्कार करता हूँ॥2

मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रास सदा नो भव खग बाजः॥3

भावार्थ:-जो मोह रूपी घने वन को जलाने के लिए अग्नि हैंसंत रूपी कमलों के वन को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य हैंराक्षस रूपी हाथियों के समूह को पछाड़ने के लिए सिंह हैं और भव (आवागमन) रूपी पक्षी को मारने के लिए बाज रूप हैंवे प्रभु सदा हमारी रक्षा करें॥3

 अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥

हर हृदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥4

भावार्थ:-हे लाल कमल के समान नेत्र और सुंदर वेश वाले! सीताजी के नेत्र रूपी चकोर के चंद्रमाशिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के बालहंसविशाल हृदय और भुजा वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥4

 संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥

भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥5

भावार्थ:-जो संशय रूपी सर्प को ग्रसने के लिए गरुड़ हैंअत्यंत कठोर तर्क से उत्पन्न होने वाले विषाद का नाश करने वाले हैंआवागमन को मिटाने वाले और देवताओं के समूह को आनंद देने वाले हैंवे कृपा के समूह श्री रामजी सदा हमारी रक्षा करें॥5

 निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥

अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं॥6

भावार्थ:-हे निर्गुणसगुणविषम और समरूप! हे ज्ञानवाणी और इंद्रियों से अतीत! हे अनुपमनिर्मलसंपूर्ण दोषरहितअनंत एवं पृथ्वी का भार उतारने वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥6

 भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥

अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥7

भावार्थ:-जो भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के बगीचे हैंक्रोधलोभमद और काम को डराने वाले हैंअत्यंत ही चतुर और संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सेतु रूप हैंवे सूर्यकुल की ध्वजा श्री रामजी सदा मेरी रक्षा करें॥7

 अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः॥

धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥8

भावार्थ:-जिनकी भुजाओं का प्रताप अतुलनीय हैजो बल के धाम हैंजिनका नाम कलियुग के बड़े भारी पापों का नाश करने वाला हैजो धर्म के कवच (रक्षक) हैं और जिनके गुण समूह आनंद देने वाले हैंवे श्री रामजी निरंतर मेरे कल्याण का विस्तार करें॥8

 जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी॥

तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥9

भावार्थ:-यद्यपि आप निर्मलव्यापकअविनाशी और सबके हृदय में निरंतर निवास करने वाले हैंतथापि हे खरारि श्री रामजी! लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिए॥9

 जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी॥

जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10

भावार्थ:-हे स्वामी! आपको जो सगुणनिर्गुण और अंतर्यामी जानते होंवे जाना करेंमेरे हृदय में तो कोसलपति कमलनयन श्री रामजी ही अपना घर बनावें॥10

 अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥

सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11

भावार्थ:-ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्री रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥11

 परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥

मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12

भावार्थ:-(और कहा-) हे मुनि! मुझे परम प्रसन्न जानो। जो वर माँगोवही मैं तुम्हें दूँ! मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- मैंने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या झूठ है और क्या सत्य है, (क्या माँगूक्या नहीं)॥12

 तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥

अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13

भावार्थ:-((अतः) हे रघुनाथजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगेमुझे वही दीजिए। (श्री रामचंद्रजी ने कहा- हे मुने!) तुम प्रगाढ़ भक्तिवैराग्यविज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ॥13

 प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥14

भावार्थ:-(तब मुनि बोले-) प्रभु ने जो वरदान दियावह तो मैंने पा लिया। अब मुझे जो अच्छा लगता हैवह दीजिए॥14

सोरठा 

अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥11

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