https://youtu.be/qbS3E4qYWh0
नर्मदा अष्टकम
सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरङ्गभङ्गरञ्जितं
द्विषत्सु पापजातजातकारिवारिसंयुतम्।
कृतान्तदूतकालभूतभीतिहारिवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥१॥
त्वदम्बुलीनदीनमीनदिव्यसम्प्रदायकं
कलौ मलौघभारहारि सर्वतीर्थनायकम्।
सुमच्छकच्छनक्रचक्रचक्रवाकशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥२॥
महागभीरनीरपूरपापधूतभूतलं
ध्वनत्समस्तपातकारिदारितापदाचलम्।
जगल्लये महाभये मृकण्डसूनुहर्म्यदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥३॥
गतं तदैव मे भवं त्वदम्बुवीक्षितं यदा
मृकण्डसूनुशौनकासुरारिसेवि सर्वदा।
पुनर्भवाब्धिजन्मजं भवाब्धिदुःखवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥४॥
अलक्षलक्षकिन्नरामरासुरादिपूजितं
सुलक्षनीरतीरधीरपक्षिलक्षकूजितम्।
वसिष्ठसिष्टपिप्पलादिकर्दमादिशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥५॥
सनत्कुमारनाचिकेतकश्यपादिषट्पदैः
धृतं स्वकीयमानसेषु नारदादिषट्पदैः।
रवीन्दुरन्तिदेवदेवराजकर्मशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥६॥
अलक्षलक्षलक्षपापलक्षसारसायुधं
ततस्तु जीवजन्तुतन्तुभुक्तिमुक्तिदायकम्।
विरञ्चिविष्णुशङ्करस्वकीयधामवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥७॥
अहोऽमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे
किरातसूतवाडवेषु पण्डिते शठे नटे।
दुरन्तपापतापहारिसर्वजन्तुशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे॥८॥
इदं तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये सदा
पठन्ति ते निरन्तरं न यान्ति दुर्गतिं कदा।
सुलभ्य देहदुर्लभं महेशधामगौरवं
पुनर्भवा नरा न वै विलोकयन्ति रौरवम्॥९॥
इति श्रीमदशंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं सम्पूर्णं ।
अनुवाद
(अंत–समय में ) यम-दूतों तथा (सर्वदा) काल-भूतों के भय का हरण करके, रक्षा करनेवाली, हे माँ नर्मदा देवि ! अपने जल-कणों द्वारा समुद्र की उछलती हुई लहरों में रोचक दृश्य उत्पन्न करने वाले तथा शत्रुओं के भी पाप-समुदाय को नाश करने वाले, निर्मल जल-सहित आपके चरण कमलों को में नमस्कार करता हूँ ॥१॥
मत्स्य (मछ्ली), कच्छ (कछुआ), नक्र (मगर) इत्यादि जल-जींव-समुदाय, तथा चक्रवाक (चकई-चकवा) आदि पक्षी-समुदाय को सुख देनेवाली हे नर्मदा जी ! आपके जल मे मग्न रहनेवाले दीन-दु:खी मतस्यों को दिव्य (स्वर्ग) पद देनेवाले, तथा इस कलियुग के पापपुंज रूपी भार को हरनेवाली, और सर्व तीर्थों (जालों) मे श्रेष्ठ ऐसे जल-युक्त आपके चरणकमलों को मै प्रणाम करता हूँ ।।२।।
महान भयंकर संसार के प्रलय में मार्कण्डेय ऋषि को आश्रय देनेवाली, हे नर्मदा देवि ! अत्यंत गंभीर जल के प्रवाह द्वारा पृथ्वी-तल के पापों को धोनेवाले, तथा अपने कलकल शब्दों द्वारा समस्त पातकों को नाश करने वाले तथा संकटों के पर्वतों को विदीर्ण करने वाले, ऐसे आपके जलयुक्त चरण – कमलों को मै प्रणाम करता हूँ ॥३॥
मार्कण्डेय, शौनक, तथा देवताओं से निरंतर सेवन किए गए,आपके जल को जिस समय मैंने देखा, उसी समय मेरे जन्म-मरण-रूप दु:ख और संसार-सागर मे उत्पन्न हुए समस्त भय भाग गए । संसाररूपी समुद्र के दु:खों से मुक्त करेने वाली, हे नर्मदा जी ! आपके चरणकमलों को मै प्रणाम करता हूँ ॥४॥
वसिष्ठ ऋषि, श्रेष्ठ पिप्पलाद ऋषि, तथा कर्दम आदि ऋषियों को सुख देने वाली, हे माँ नर्मदा देवि ! अदृश्य लाखों किन्नरों (देवयोनि विशेष ), देवताओं, तथा मनुष्यों से पूजन किए गए, और प्रत्यक्ष आपके जल के किनारे निवास करने वाले लाखों पक्षियों से कूजित (किलकिलाहट) किए गए, आपके चरण कमलों को मे प्रणाम करता हूँ॥५॥
सूर्य, चन्द्र, रंतिदेव, और इंद्रादि देवताओं को सुख देनेवाली, हे माँ नर्मदा जी ! सनत्कुमार नाचिकेत, कस्यप, आत्रि, तथा नारदादि ऋषिरूप जो भ्रमर उनसे अपने-अपने मन में धारण किए गए, ऐसे आपके चरण कमलों को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ॥६॥
ब्रह्मा, विष्णु, तथा इनको अपना-अपना पद (सामर्थ्य तथा स्थान) देनेवाली, हे माँ नर्मदा देवि ! जिनकी गणना करने को मन भी नहीं पहुंचता, ऐसे असंख्य पापों को नाश करने के लिए प्रबल आयुध (तीक्ष्ण तलवार) के समान, तथा आपके किनारे पर रहनेवाले जीव ( बड़े-बड़े प्राणी) जन्तु (छोटे प्राणी) तन्तु (लता आदि) अर्थात् स्थावर-जंगल समस्त प्राणियों को इस लोक का सुख तथा परलोक (मुक्ति) का सुख देनेवाले, ऐसे आपके चरणकमलों को मै प्रणाम करता हूँ ॥७॥
अहह ! शंकर जी की जटाओं से उत्पन्न रेवा जी के किनारे मैंने अमृत के समान आनंददायक कलकल शब्द सुना, समस्त जाति के प्राणियों को सुख देनेवाली, हे माँ नर्मदा जी ! किरात (भील) सूत ( भाट ) बाडव (ब्राह्मण) पंडित (विद्वान) शठ (धूर्त) और नट, इनके अनंत पाप पुंजों के तापों को हरण करनेवाली, ऐसे आपके चरण कमलों को मै प्रणाम करता हूँ ॥८॥
जो भी इस नर्मदाष्टक का प्रति-दिन तीन कल ( प्रात:, सायं, मध्यान्ह) मे पाठ करते है, वे कभी भी दुर्गति को नहीं प्राप्त होते, तथा अन्य लोकों को दुर्लभ ऐसे सुंदर शरीर धरण का कर शिवलोक को गमन करते है, तथा इस लोक मे सुख पाते है और पुनर्जन्म के बंधन से छूट कर कभी भी रौरवादि नरकों को नहीं देखते ॥९॥
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