मंगलवार, 19 मार्च 2024

कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी.../ महाकवि विद्यापति / बटगवनी-श्रृंगार गीत / मैथिल लोक गीत

https://youtu.be/a_R4GaTGR7M  

कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।

एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी॥

छाड़ कान्ह मोर आँचर रे फाटत नव सारी।

अपजस होएत जगत भारी हे जनि करिअ उघारी॥

संगक सखि अगुआइलरे हम एकसरि नारी।

दामिनि आए तुलाएलि हे एक राति अँधारी॥

भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।

हरिक संग किछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी॥

कवि नागार्जुन का अनुवाद :

कुंज भवन से निकली ही थी कि गिरधारी ने रोक लिया। माधव, बटमारी मत करो,
हम एक ही नगर के रहने वाले हैं। कान्‍हा, आंचल छोड़ दो। मेरी साड़ी अभी नयी-नयी
है, फट जाएगी। छोड़ दो। दुनिया में बदनामी फैलेगी। मुझे नंगी मत करो। साथ की
सहेलियां आगे बढ़ गयी हैं। मैं अकेली हूं। एक तो रात ही अंधेरी है, उस पर बिजली भी
कौंधने लगी - हाय, अब मैं क्‍या करूं? विद्यापति ने कहा, तुम तो बड़ी गुणवती हो। हरि
से भला क्‍या डरना। तुम गंवार हो। गंवार न होती तो हरि से भला क्‍यों डरती।

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