मित्रों, आज आपको लगभग 44 वर्ष पूर्व लिखी कविता
प्रस्तुत कर रहा हूँ। सोलह-सत्रह साल के किशोर वय की यह
कविता पत्र -उत्तर शैली में है। इतने वर्षों बाद जब मैंने स्वयं
इसका पुनर्पाठ किया तो मुझे लगा कि, अनगढ़पन के बावजूद
इसमें कच्ची उम्र का एक भावुक सलोनापन है, जो आकर्षक है।
अस्तु, इसके माध्यम से आज आपको कैशोर्य के उस
कालखण्ड में ले चल रहा हूँ जो मेरी कविताओं का प्रारंभिक
दौर है।
इस कविता के प्रत्युत्तर का एक प्रति-उत्तर भी है जो फिर
कभी अगली पोस्ट में। -अरुण मिश्र.
पत्र, उत्तर एवं प्रत्युत्तर
-अरुण मिश्र.
: पत्र :
हेमन्ती रात और अनजानी प्रीति;
अनचाहे मुखर हुआ, अनगाया गीत।
जाने कौन आकर्षण, बाँधता अकारण है;
अनाघ्रात, अस्पर्शित, मेरे मनमीत??
: उत्तर :
शब्द नहीं मिलते हैं, कैसे करूँ धन्यवाद?
आखि़र निर्मोही को आई तो मेरी याद।
तुमको क्या कह कर मैं सम्बोधित करूँ?
तुम तो, मेरे सब सम्बोधन तोड़ोगे निर्विवाद।।
: प्रत्युत्तर :
शोर दिन का, ज्यों चरण-नूपुर हो तेरा।
केश, ज्यों निस्पन्द रजनी का अँधेरा।
रात-दिन की व्यस्तता में डूब कर यूँ ;
और लघु होता है, स्मृतियों का घेरा।।
याद फिर, कैसे भला, आये न तेरी;
रात में, दिन में, कि चारों ओर तुम हो।
प्राण की मेरे तुम्हीं अस्तित्व, रूपसि!
और मेरी कल्पना की छोर, तुम हो।।
विगत की स्मृति, भविष्यत का सपन स्वर्णिम,
और इस प्रत्यक्ष की अनुभूतियाँ मधुतम,
मूल में इनके, तुम्हारा रूपशाली मन;
बाँधती सस्नेह, रेशम-डोर तुम हो।।
कह गया शायद बहुत मैं भेद की बातें;
प्यार रह कर मूक है ख़ुद ही मुखर होता।
दूर तक फैले हुये काले अँधेरे में,
टिमटिमाता दीप है, कितना प्रखर होता।।
और स्वीकृति ही है शाश्वत प्रीति की प्रतिध्वनि;
गिन रही है ज़िंदगी फिर, साँस की सीढ़ी।
मैं विवश था, मौन को यूँ शब्द देने हेतु,
पत्थरों को तोड़, ज्यों जाता बिखर सोता।।
हम नियति के हाथ के, मोमी खिलौने हैं,
काल की जो आँच से, गल जायेंगे इक दिन।
प्रीति-तरु के हेतु है, दावाग्नि यह संसार;
नीड़धर्मी विहग सब, जल जायेंगे इक दिन।।
बहुत सम्भव सृष्टि में, भूकम्प वह आये;
प्रलय छाये, और जग अःशेष हो जाये।
पर हमारा प्यार यह लौकिक, अलौकिक हो;
हो अमर, ताजा रहेगा, हर घड़ी, हर छिन।।
*
प्रस्तुत कर रहा हूँ। सोलह-सत्रह साल के किशोर वय की यह
कविता पत्र -उत्तर शैली में है। इतने वर्षों बाद जब मैंने स्वयं
इसका पुनर्पाठ किया तो मुझे लगा कि, अनगढ़पन के बावजूद
इसमें कच्ची उम्र का एक भावुक सलोनापन है, जो आकर्षक है।
अस्तु, इसके माध्यम से आज आपको कैशोर्य के उस
कालखण्ड में ले चल रहा हूँ जो मेरी कविताओं का प्रारंभिक
दौर है।
इस कविता के प्रत्युत्तर का एक प्रति-उत्तर भी है जो फिर
कभी अगली पोस्ट में। -अरुण मिश्र.
पत्र, उत्तर एवं प्रत्युत्तर
-अरुण मिश्र.
: पत्र :
हेमन्ती रात और अनजानी प्रीति;
अनचाहे मुखर हुआ, अनगाया गीत।
जाने कौन आकर्षण, बाँधता अकारण है;
अनाघ्रात, अस्पर्शित, मेरे मनमीत??
: उत्तर :
शब्द नहीं मिलते हैं, कैसे करूँ धन्यवाद?
आखि़र निर्मोही को आई तो मेरी याद।
तुमको क्या कह कर मैं सम्बोधित करूँ?
तुम तो, मेरे सब सम्बोधन तोड़ोगे निर्विवाद।।
: प्रत्युत्तर :
शोर दिन का, ज्यों चरण-नूपुर हो तेरा।
केश, ज्यों निस्पन्द रजनी का अँधेरा।
रात-दिन की व्यस्तता में डूब कर यूँ ;
और लघु होता है, स्मृतियों का घेरा।।
याद फिर, कैसे भला, आये न तेरी;
रात में, दिन में, कि चारों ओर तुम हो।
प्राण की मेरे तुम्हीं अस्तित्व, रूपसि!
और मेरी कल्पना की छोर, तुम हो।।
विगत की स्मृति, भविष्यत का सपन स्वर्णिम,
और इस प्रत्यक्ष की अनुभूतियाँ मधुतम,
मूल में इनके, तुम्हारा रूपशाली मन;
बाँधती सस्नेह, रेशम-डोर तुम हो।।
कह गया शायद बहुत मैं भेद की बातें;
प्यार रह कर मूक है ख़ुद ही मुखर होता।
दूर तक फैले हुये काले अँधेरे में,
टिमटिमाता दीप है, कितना प्रखर होता।।
और स्वीकृति ही है शाश्वत प्रीति की प्रतिध्वनि;
गिन रही है ज़िंदगी फिर, साँस की सीढ़ी।
मैं विवश था, मौन को यूँ शब्द देने हेतु,
पत्थरों को तोड़, ज्यों जाता बिखर सोता।।
हम नियति के हाथ के, मोमी खिलौने हैं,
काल की जो आँच से, गल जायेंगे इक दिन।
प्रीति-तरु के हेतु है, दावाग्नि यह संसार;
नीड़धर्मी विहग सब, जल जायेंगे इक दिन।।
बहुत सम्भव सृष्टि में, भूकम्प वह आये;
प्रलय छाये, और जग अःशेष हो जाये।
पर हमारा प्यार यह लौकिक, अलौकिक हो;
हो अमर, ताजा रहेगा, हर घड़ी, हर छिन।।
*