https://youtu.be/a42qh7Sqky0
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दैर-ओ-हरम में बसने वालों
मैख़्वारों में फूट न डालो
(दैर-ओ-हरम = मंदिर और मस्जिद), (मैख़्वारों = शराबियों)
तूफ़ाँ से हम टकरायेंगे
तुम अपनी कश्ती को संभालो
मैखाने में आए वाइज़
इनको भी इंसान बना लो
(वाइज़ = धर्मोपदेशक)
आरिज़-ओ-लब सादा रहने दो
ताजमहल पे रंग न डालो
(आरिज़-ओ-लब = कपोल/ गाल और होंठ)
-ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी
मैख़्वारों में फूट न डालो
(दैर-ओ-हरम = मंदिर और मस्जिद), (मैख़्वारों = शराबियों)
तूफ़ाँ से हम टकरायेंगे
तुम अपनी कश्ती को संभालो
मैखाने में आए वाइज़
इनको भी इंसान बना लो
(वाइज़ = धर्मोपदेशक)
आरिज़-ओ-लब सादा रहने दो
ताजमहल पे रंग न डालो
(आरिज़-ओ-लब = कपोल/ गाल और होंठ)
-ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी
मुजफ़्फ़र हुसैन उर्फ़ ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी का जन्म 20 जुलाई 1932 ई० को गाजीपुर शहर के मुहल्ला सट्टी मस्जिद में हुआ था। आपके पिता मुनव्वर हुसैन नेक परहेजगार इंसान थे। ख़ामोश की शुरूआती तालीम घर व मदरसे में कुरआन मजीद से शुरू हुई। उसके बाद मदरसा चश्म-ए-रहमत ओरियंटल कॉलेज गाजीपुर से मुन्शी, फारसी, उर्दू, अव्लव दर्जे से हाईस्कूल पास किए। सन 1953 में जामिया उर्दू अलीगढ़ से अदीब-ए-माहिर और अदीब-ए-कामिल की डिग्री लेकर मदरसा चश्म-ए-रहमत में ही अध्यापन कार्य करने लगे। सन 1953-56 के बीच चश्म-ए-रहमत कॉलेज में तीन साल उर्दू के अध्यापक रहे। शादी के बाद तीन बेटे और एक बेटी के बाप बने। उन्हें बचपन से ही शायरी का शौक़ था। सन 1956 के बाद कॉलेज छोड़ने पर मुशायरों में कलाम पेश करना शुरू कर दिया। मुशायरों में मिलने वाले पारिश्रमिक को ही अपनी रोजी-रोटी का ज़रिया बना लिया। उन्होंने अपनी शायरी का उस्ताद शुरू में अबुल गौस ग़ा़जीपुरी को बनाया। उनके वफ़ात के बाद सरोश मछलीशहरी के शागिर्द हो गए। जब वे मुशायरों में दाखिल हुए तो वह
साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, फैज अहमद फैज, कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी का दौर था, उस समय उन्होंने इन सबसे अलग ख़ास पहचान बनाई। अपनी बेहतरीन ग़ज़लों और शानदार तरंनुम की वजह से वे मुशायरों का धड़कन कहलाने लगे। वे जब जब मुशायरों के मंच पर आकर ग़ज़लें पढ़ना शुरू करते तो महफिल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठतीं। मुशायरों में इतने अधिक मक़बूल हो गए कि महीनों सफ़र में रहते।
साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, फैज अहमद फैज, कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी का दौर था, उस समय उन्होंने इन सबसे अलग ख़ास पहचान बनाई। अपनी बेहतरीन ग़ज़लों और शानदार तरंनुम की वजह से वे मुशायरों का धड़कन कहलाने लगे। वे जब जब मुशायरों के मंच पर आकर ग़ज़लें पढ़ना शुरू करते तो महफिल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठतीं। मुशायरों में इतने अधिक मक़बूल हो गए कि महीनों सफ़र में रहते।
ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी का एक ख़ास मुकाम है, जिन्होंने अपनी ग़ज़लों को खुद के ही शानदार तरंनुम में पेश कर लोगों को वाह-वाह करने के लिए मज़बूर किया। अपने समय में ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी जिन मुशायरों में जाते उसे कामयाब बनाने की जमानत बन जाते।
49 वर्ष की उम्र में 11 अक्टूबर सन 1981 को इस दुनियां-ए-फानी को अलविदा कह गये।खामोश की आखि़री आरामगाह गाजीपुर स्थित इमामबाड़ा कब्रिस्तान में है। सन 1985 में ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी की ग़ज़ल संग्रह ‘नवा-ए-खामोश’ उनके सहयोगी साथी ख़लिश ग़ाज़ीपुरी, मंजर भोपाली वगैरह बड़े शायरों द्वारा स्थापित संस्था ‘बज़्म-ए-ख़ामोश’ के मेम्बरान के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हुआ।
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