मंगलवार, 11 मई 2021

अजब अंदाज़ तुझ को नरगिस-ए- मस्ताना आता है / सैयद बाक़र हुसैन शाह शाहजहांपुर वाले

https://youtu.be/eXB7cYJtgOs


अजब अंदाज़ तुझ को नरगिस-ए- मस्ताना आता है 
के हर हुशियार बनने को यहाँ दीवाना आता है 
कोई ज़ाहिद हो, वाहिद हो, बे-ताबाना आता है 
समझ में जिसकी राज़-ए-बादा-ओ-पैमाना आता है 
वही मस्जिद से उठ कर ज़ानिब-ए-मैख़ाना आता है 

हक़ीक़त में निग़ाहें देख लेती हैं हक़ीक़त को

छुपा सकते नहीं कस्रत के परदे रंग-ए-वहदत को

समझते हैं मोहब्बत वाले आदाब-ए-मोहब्बत को

ज़माना क्या समझ सकता है उसके कुफ़्र-ए-उल्फ़त को

नज़र बुत में भी जिसको जल्वा-ए-जानाना आता है


करी है दैर में वह सजदा रेज़ी ऐन मस्ती में

मुझे काफ़िर लगे कहने मुसलमानों की बस्ती में

नज़र आती नहीं कुछ अपनी हस्ती, अपनी हस्ती में

कुछ ऐसा खो गया हूँ दिल के हाथों बुत परस्ती में

जिधर जाता हूँ मेरे सामने बुतख़ाना आता है


हर इक गफ्फार को बाक़िर दुर-ए-इरफ़ां नहीं मिलता

नहीं इस राह में मक़सूद-ए-दिल आसां नहीं मिलता

कभी गुलशन में कांटा बे-गुल-ए-ख़न्दां नहीं मिलता 

न गुज़रे कुफ़्र से जब तक कभी ईमां नहीं मिलता 
के पहले तो हरम की राह में बुतख़ाना आता है 


न हासिल है सुकूं सेहरा में और न दिल को बस्ती में

बुलंदी पर गुज़र होता न मेरा, होता पस्ती में

खबर तक भी नहीं क्यूँ मह्व हूँ उल्फत परस्ती में

हिज़ाब-ए-कैफ़ के परदे उठे कुछ कैफ़-ओ-मस्ती में

न जाने किसकी हस्ती देखता हूँ अपनी हस्ती में


मैं हूँ वो रिंद मेरी ज़िन्दगी मैख़ाने में गुज़री

मेरी इज़्ज़त किया करते थे सूफ़ी, ज़ाहिद-ओ-मुफ़्ती

मेरी तुर्बत पे आके ख़ुद ये साक़ी ने दुआ माँगी

ख़ुदा बख़्से बहोत अच्छी गुज़ारी मय-परस्ती में


के पिन्हा आतिश-ए-फुरक़त के सीने में बहोत शोले

नज़र थी चार-सू मेरी फ़रिश्ते लेके जब पहुँचे

तराशे बुत, बुती को देख कर जन्नत में यूँ बोले

ये काफ़िर क्यों चला आया मुसलमानों की बस्ती में

मेरे जल्वे भी रहते हैं, सनम भी इसमें रहते हैं

हैं अहले-ग़ैर भी, अहले-हरम भी इसमें रहते हैं

उन्हीं पर हैं नहीं माक़ूफ़ हम भी इसमें रहते हैं

हर एक तरह की दुन्या बसी है दिल की बस्ती में



तजल्ली वार हैं और पर्दा-ए-हायल मैं रहते हैं

तड़पता देखने को हर किन-ए-बिस्मिल में रहते हैं

भला जो आप दिल से दिल वो कब इस दिल में रहते हैं

ख़ुदारा हाँ बस उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं

के जिसकी जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं

किसी सूरत वफ़ा का दम नहीं भरते परी पैक़र

ज़ुबाँ से जो भी कहते हैं नहीं करते परी पैक़र

सितम की हद ख़ुदा से भी नहीं डरते परी पैक़र

ज़मीं पर पावं गफलत से नहीं धरती परी पैक़र

वो गोया इस मकाँ की दूसरी मंज़िल में रहते हैं इधर इश्क़-ए-जफ़ा कुन है , उधर हुस्न-ए-जफ़ा परवर

लगावत का यक़ीं इसको वफ़ा का है उसे 'बाक़र'

तसव्वुर में दिखाया चौखटा तस्वीर से बढ़ कर

ख़ुदा रक्खे मुहब्बत ने किये आबाद दोनों घर

मैं उनके दिल में रहता हूँ वो मेरे दिल में रहते हैं

जहाँ तक हो सके गन्जीना-ए-ग़म को छुपा लेना

के अपना काम है हर देने वाले को दुआ देना

वफ़ा-ए-आरज़ू बे-फ़ायदा तुम मत लुटा देना

अगर नाम-ओ-निशां पूछे तो क़ासिद यह बता देना

तखल्लज़दार है और आशिक़ों के दिल में रहते हैं

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