शनिवार, 29 मई 2021

देख तो दिल कि जाँ से उठता है.../ मीर तक़ी मीर (१७२३ -१८१०) / मेहँदी हसन (१९२७-२०१२)

 https://youtu.be/QSDtPJV0G3w 

ख़ुदा-ए-सुख़न "मीर तक़ी मीर" की ग़ज़ल
"देख तो दिल कि जां से उठता है" 
शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहँदी हसन की आवाज़ में।

मीर तकी "मीर"  (१७२३ -१८१०)

ख़ुदा-ए-सुखन मोहम्मद तकी उर्फ मीर तकी "मीर" (1723 - 1810उर्दू एवं फ़ारसी 
भाषा के महान शायर थे। मीर को उर्दू के उस प्रचलन के लिए याद किया जाता है 
जिसमें फ़ारसी और हिन्दुस्तानी के शब्दों का अच्छा मिश्रण और सामंजस्य हो। 
अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को 
मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा था। 
इनका जन्म आगरा (अकबरपुर) मे हुआ था। उनका बचपन अपने पिता की देखरेख 
मे बीता। उनके प्यार और करुणा के जीवन में महत्त्व के प्रति नजरिये का मीर के 
जीवन पे गहरा प्रभाव पड़ा जिसकी झलक उनके शेरो मे भी देखने को मिलती है | 
पिता के मरणोपरांत, ११ की वय मे, इनके उपर ३०० रुपयों का कर्ज था और पैतृक 
सम्पत्ति के नाम पर कुछ किताबें। १७ साल की उम्र में वे दिल्ली आ गए। बादशाह के 
दरबार में १ रुपया वजीफ़ा मुकर्रर हुआ। इसको लेने के बाद वे वापस आगरा आ गए। 
१७३९ में फ़ारस के नादिरशाह के भारत पर आक्रमण के दौरान समसामुद्दौला मारे गए 
और इनका वजीफ़ा बंद हो गया। इन्हें आगरा भी छोड़ना पड़ा और वापस दिल्ली आए। 
अब दिल्ली उजाड़ थी और कहा जाता है कि नादिर शाह ने अपने मरने की झूठी अफ़वाह 
पैलाने के बदले में दिल्ली में एक ही दिन में २०-२२००० लोगों को मार दिया था और 
भयानक लूट मचाई थी।
उस समय शाही दरबार में फ़ारसी शायरी को अधिक महत्व दिया जाता था। मीर तक़ी मीर 
को उर्दू में शेर कहने का प्रोत्साहन अमरोहा के सैयद सआदत अली ने दिया। २५-२६ साल की 
उम्र तक ये एक दीवाने शायर के रूप में ख्यात हो गए थे। १७४८ में इन्हें मालवा के सूबेदार के 
बेटे का मुसाहिब बना दिया गया। लेकिन १७६१ में एक बार फ़िर भारत पर आक्रमण हुआ। 
इस बार बारी थी अफ़गान सरगना अहमद शाह अब्दाली (दुर्रानी) की। वह नादिर शाह का ही 
सेनापति था। पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठे हार गए। दिल्ली को फिर बरबादी के दिन 
देखने पड़े। लेकिन इस बार बरबाद दिल्ली को भी वे अपने सीने से कई दिनों तक लगाए रहे। 
अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद वह अशफ - उद - दुलाह के दरबार मे लखनऊ 
चले गये। अपनी जिन्दगी के बाकी दिन उन्होने लखनऊ मे ही गुजारे।
मीर की ग़ज़लों के कुल ६ दीवान हैं। इनमें से कई शेर ऐसे हैं जो मीर के हैं या नहीं इस पर विवाद है। 
इसके अलावा कई शेर या कसीदे ऐसे हैं जो किसी और के संकलन में हैं पर ऐसा मानने वालों की 
कमी नहीं कि वे मीर के हैं। शेरों (अरबी में अशआर) की संख्या कुल १५००० है। इसके अलावा 
कुल्लियात-ए-मीर में दर्जनों मसनवियाँ (स्तुतिगान), क़सीदे, वासोख़्त और मर्सिये संकलित हैं।


मेहँदी हसन (१९२७-२०१२)

राजस्थान के झुंझुनूं जिले के लूणा गांव में 18 जुलाई 1927 को जन्में मेहदी हसन का 
परिवार संगीतकारों का परिवार रहा है। मेहदी हसन के अनुसार कलावंत घराने में वे उ
नसे पहले की 15 पीढ़ियां भी संगीत से ही जुड़ी हुई थीं। संगीत की आरंभिक शिक्षा 
उन्होंने अपने पिता उस्ताद अजीम खान और चाचा उस्ताद ईस्माइल खान से ली। 
दोनों ही ध्रुपद के अच्छे जानकार थे। भारत-पाक बंटवारे के बाद उनका परिवार 
पाकिस्तान चला गया। वहां उन्होंने कुछ दिनों तक एक साइकिल दुकान में काम 
किया और बाद में मोटर मेकैनिक का भी काम उन्होंने किया। लेकिन संगीत को लेकर 
जो जुनून उनके मन में था, वह कम नहीं हुआ।
1950 का दौर उस्ताद बरकत अली, बेगम अख्तर, मुख्तार बेगम जैसों का था, जिसमें 
मेहदी हसन के लिये अपनी जगह बना पाना सरल नहीं था। एक गायक के तौर पर उन्हें 
पहली बार 1957 में रेडियो पाकिस्तान में बतौर ठुमरी गायक पहचान मिली।  उसके बाद 
मेहदी हसन ने मुड़ कर नहीं देखा. फिर तो फिल्मी गीतों और गजलों की दुनिया में वो छा गये।
1957 से 1999 तक सक्रिय रहे मेहदी हसन ने गले के कैंसर के बाद पिछले 12 सालों से गाना 
लगभग छोड़ दिया था। उनकी अंतिम रिकार्डिंग 2010 में सरहदें नाम से आयी, जिसमें 
फ़रहत शहज़ाद की लिखी "तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है" की रिकार्डिंग उन्होंने 2009 में 
पाकिस्तान में की और उस ट्रेक को सुनकर 2010 में लता मंगेशकर ने अपनी रिकार्डिंग मुंबई 
में की. इस तरह यह युगल अलबम तैयार हुआ।

देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुआं सा कहां से उठता है
गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इक सुब्ह यां से उठता है
ख़ाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा
कोई ऐसे मकां से उठता है
नाला सर खींचता है जब मेरा
शोर इक आसमां से उठता है
लड़ती है उस की चश्म-ए-शोख़ जहां
एक आशोब वां से उठता है
सुध ले घर की भी शोला-ए-आवाज़
दूद कुछ आशियां से उठता है
बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तिरे आस्तां से उठता है
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है
इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवां से उठता है
शब्दार्थ :
गोर - क़ब्र / फ़लक - आसमान / शोला - लपट 
ख़ाना-ए-दिल  -  दिल के घर / ज़ीनहार - हर्गिज़ 
नाला - आर्तनाद / सर खींचता - सर उठाता 
चश्म-ए-शोख़  -  चंचल आँखें / आशोब - हलचल 
शोला-ए-आवाज़  -  आवाज़ की आँच (लपट)
दूद - धुआँ / आशियाँ - आश्रय (घर) / आस्तां - चौखट, दहलीज़ 
नातवां - दुर्बल, अशक्त 

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