https://youtu.be/1Na8shDdnH0
ख़्वाजा शम्स-अल-दीन (शम्सुद्दीन) मोहम्मद हाफ़िज़ शिराज़ी (१३२५-१३८९)
एक विचारक और कवि थे जो अपनी फ़ारसी ग़जलों के लिए जाने जाते हैं। ये
हाफ़िज़ शिराज़ी के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनकी कविताओं में रहस्यमय प्रेम और
भक्ति का मिला जुला असर दिखता है जिसे सूफ़ीवाद के एक स्तंभ के रूप में
देखा जाता है। उनकी ग़ज़लों का दीवान (कविता संग्रह), ईरान में, हर घर में
पाई जाने वाली किताबों में से एक है और लगभग सभी भाषाओं में अनूदित हो
चुका है। उनकी मज़ार ईरान के शिराज़ शहर में स्थित है जहाँ उन्होने अपना
पूरा जीवन बिताया।
ऐ ख़ुस्रवे-ख़ूबां नज़र-ए-सू-ए-गदा कुन
रहम-ए-ब-मने-सोख्ता ए-बेसर-ओ-पा कुन
रहम-ए-ब-मने-सोख्ता ए-बेसर-ओ-पा कुन
ऐ खुस्रवे-ख़ूबां नज़र इक सू-ए-गदा हो
दिलजोई-ए-आशुफ़्तासर-ए-बेसर-ओ-पा हो
दिलजोई-ए-आशुफ़्तासर-ए-बेसर-ओ-पा हो
दारद दिल-ए-दरवेश तमन्ना-ए-निगाहे
जां चश्म-ए-सियहमस्त ब एक ग़मज़ा रवां कुन
रखता दिल-ए-दरवेश जो है तेरी तमन्ना
ऐ चश्म-ए-सियह, काश ये ग़म्ज़े से रवां हो
ग़र लाफ़ ज़नद माह के मानन्द ब जमालत
बेनामी-ए-रुख़-ए-ख़ीश-ओ-मह अंगुश्तनुमा कुन
मग़रूर न मेहताब हो यूँ हुस्न पर अपने
ऐ महजबीं रुख कभी ग़र तेरे नुमा हो
ऐ सर्व-ए-चमन अज़ चमन-ओ-बाग़ ज़माने
ब ख़राम दार ईं बज़्म-ओ-दो सद जामा क़बा कुन
ऐ सर्व-ए-चमन ग़र तू गुलिस्तां से ख़रामन
आ जाये कभी बज़्म में, सद जामा क़बा हो
शमा-ओ-गुल-ओ-परवाना-ओ-बुलबुल हमा जमा अन्द
ऐ दोस्त बिआ, रहम ब-तन्हाई-ए-मा कुन
शाम-ओ-गुल-ओ-परवाना-ओ-बुलबुल हैं सभी जम्म
तन्हाई पे मेरी भी क़रम काश तेरा हो
बा-दिल शुदगां जोर-ओ-जफ़ा ता बा के आख़िर
आहंग-ए-वफ़ा, तर्क़-ए-जफ़ा बेह्र-ए- ख़ुदा कुन
उश्शाक़ पे यह ज़ोर-ओ-सितम कब तलक आख़िर
आहंग-ए-वफ़ा, तर्क़-ए-जफ़ा, बेह्र-ए- ख़ुदा हो
मिश्नू सुख़न-ए-दुश्मन बदख़्वाह-ए-ख़ुदारा
ब-हाफ़िज़-ए-मिस्कीं-ए-ख़ुद ऐ दोस्त वफ़ा कुन
सुनता सुख़न-ए-दुश्मन बदगूं तू है क्यूँ
बा-हाफ़िज़-ए-मिस्कीं कभी मायल बा-वफ़ा हो
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