https://youtu.be/7WwmYq5Sfwk
मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी सौदा (१७१३ - १७८१)
१८ वीं सदी के बड़े शायरों में शामिल, मीर तक़ी 'मीर' के समकालीन।
मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी 'सौदा' (१७१३–१७८१) देहली के एक प्रसिद्ध शायर थे।
वे अपनी ग़ज़लों और क़सीदों के लिए जाने जाते हैं। ये मीर के समकालीन थे
इसलिए इनकी तुलना भी अक्सर मीर से होती है। मीर जहाँ ग़ज़लों के लिए
आधुनिक उर्दू के उस्ताद माने गए हैं (ख़ासकर दिल्ली-लखनऊ के इलाक़े में),
सौदा को ग़ज़लों में वो स्थान नहीं मिल पाया। हाँलांकि सौदा ने मसनवी, क़सीदे,
मर्सिया तर्जीहबन्द, मुख़म्मस, रुबाई, क़ता और हिजो तक लिखा है।
१८ वीं सदी के बड़े शायरों में शामिल, मीर तक़ी 'मीर' के समकालीन।
मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी 'सौदा' (१७१३–१७८१) देहली के एक प्रसिद्ध शायर थे।
वे अपनी ग़ज़लों और क़सीदों के लिए जाने जाते हैं। ये मीर के समकालीन थे
इसलिए इनकी तुलना भी अक्सर मीर से होती है। मीर जहाँ ग़ज़लों के लिए
आधुनिक उर्दू के उस्ताद माने गए हैं (ख़ासकर दिल्ली-लखनऊ के इलाक़े में),
सौदा को ग़ज़लों में वो स्थान नहीं मिल पाया। हाँलांकि सौदा ने मसनवी, क़सीदे,
मर्सिया तर्जीहबन्द, मुख़म्मस, रुबाई, क़ता और हिजो तक लिखा है।
(यानि १७१३-१७१४ ईसवी) बताया गया है। वे दिल्ली में पैदा और बड़े हुए और
मुहम्मद शाह के ज़माने में जिए। धर्म के नज़रिए से उनका परिवार शिया था।
उनके पहले उस्ताद सुलयमान क़ुली ख़ान 'विदाद' थे। शाह हातिम भी उनके
उस्ताद रहे क्योंकि अपने छात्रों की सूची में उन्होंने सौदा का नाम शामिल किया
था। मुग़ल बादशाह शाह आलम सौदा के शागिर्द बने और अपनी रचनाओं में
ग़लतियाँ ठीक करवाने के लिए सौदा को दिया करते थे। सौदा मीर तकी 'मीर'
के समकालीन थे।
में ही लिखा करते थे लेकिन अपने उस्ताद ख़ान-ए-आरज़ू का कहा मानकर उर्दू में भी
लिखने लगे।
बेग़म अख़्तर (१९१४-१९७४)
बेगम अख़्तर के नाम से प्रसिद्ध, अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी (१९१४-१९७४) भारत की
के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पहले पद्म श्री तथा सन १९७५ में मरणोपरांत पद्म भूषण
से सम्मानित किया गया था। उन्हें "मल्लिका-ए-ग़ज़ल" के ख़िताब से नवाज़ा गया था।
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी
क्या ज़िद है मिरे साथ ख़ुदा जाने वगरना काफ़ी है तसल्ली को मिरी एक नज़र भी
ऐ अब्र क़सम है तुझे रोने की हमारे तुझ चश्म से टपका है कभू लख़्त-ए-जिगर भी
ऐ नाला सद अफ़्सोस जवाँ मरने पे तेरे पाया न तनिक देखने तीं रू-ए-असर भी
किस हस्ती-ए-मौहूम पे नाज़ाँ है तू ऐ यार कुछ अपने शब-ओ-रोज़ की है तुझ को ख़बर भी
तन्हा तिरे मातम में नहीं शाम-ए-सियह-पोश रहता है सदा चाक गरेबान-ए-सहर भी
'सौदा' तिरी फ़रियाद से आँखों में कटी रात आई है सहर होने को टुक तू कहीं मर भी
शब्दार्थ :ग़ुल - फूल / समर - फल / ख़ाना- बर-अन्दाज़-ए-चमन - बगीचे के अपव्ययी/उदार अन्दाज़
वगरना - अन्यथा / तुझ चश्म - तेरी आँख / कभू - कभी / लख्त-ए- जिगर - जिगर का टुकड़ा
नाला - आर्तनाद / सद अफ़सोस - सैकड़ो शोक / तीं -तेरा / रू -ए-असर - असरदार/प्रभावशाली चेहरा
हस्ती-ए- मौहूम - काल्पनिक अस्तित्व / नाज़ाँ - घमण्ड करना / शब-ओ-रोज़ - रात और दिन
मातम - मृत्यु शोक / शाम-ए-सियह-पोश अँधेरे से आवृत्त शाम / चाक - फटा हुआ
गरेबान-ए-सहर - सुबह का दामन / सहर - प्रभात
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी
क्या ज़िद है मिरे साथ ख़ुदा जाने वगरना
काफ़ी है तसल्ली को मिरी एक नज़र भी
तुझ चश्म से टपका है कभू लख़्त-ए-जिगर भी
ऐ नाला सद अफ़्सोस जवाँ मरने पे तेरे
पाया न तनिक देखने तीं रू-ए-असर भी
किस हस्ती-ए-मौहूम पे नाज़ाँ है तू ऐ यार
कुछ अपने शब-ओ-रोज़ की है तुझ को ख़बर भी
तन्हा तिरे मातम में नहीं शाम-ए-सियह-पोश
रहता है सदा चाक गरेबान-ए-सहर भी
'सौदा' तिरी फ़रियाद से आँखों में कटी रात
ग़ुल - फूल / समर - फल / ख़ाना- बर-अन्दाज़-ए-चमन - बगीचे के अपव्ययी/उदार अन्दाज़
वगरना - अन्यथा / तुझ चश्म - तेरी आँख / कभू - कभी / लख्त-ए- जिगर - जिगर का टुकड़ा
नाला - आर्तनाद / सद अफ़सोस - सैकड़ो शोक / तीं -तेरा / रू -ए-असर - असरदार/प्रभावशाली चेहरा
हस्ती-ए- मौहूम - काल्पनिक अस्तित्व / नाज़ाँ - घमण्ड करना / शब-ओ-रोज़ - रात और दिन
मातम - मृत्यु शोक / शाम-ए-सियह-पोश अँधेरे से आवृत्त शाम / चाक - फटा हुआ
गरेबान-ए-सहर - सुबह का दामन / सहर - प्रभात
वगरना - अन्यथा / तुझ चश्म - तेरी आँख / कभू - कभी / लख्त-ए- जिगर - जिगर का टुकड़ा
नाला - आर्तनाद / सद अफ़सोस - सैकड़ो शोक / तीं -तेरा / रू -ए-असर - असरदार/प्रभावशाली चेहरा
हस्ती-ए- मौहूम - काल्पनिक अस्तित्व / नाज़ाँ - घमण्ड करना / शब-ओ-रोज़ - रात और दिन
मातम - मृत्यु शोक / शाम-ए-सियह-पोश अँधेरे से आवृत्त शाम / चाक - फटा हुआ
गरेबान-ए-सहर - सुबह का दामन / सहर - प्रभात
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें